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प्रथमा
वहाँ समवसरण में, भव्यदयानिधि = भव्यजीवों के लिये दया के भंडार, देवं = भगवान महावीर के पास, सम्प्राप्तः = पहुंच
गया। श्लोकार्थ - सभी राजकुमारों, नरमारियों को सर्वज्ञ भगवान महावीर के
दर्शनों के लिये उनके समवसरण की ओर भेजकर वह राजा भी शुद्ध भावों से पूजा करने के लिये अष्टमङ्गल द्रव्य लेकर अत्यधिक रोमांच होने पर उत्पन्न आनंद के लक्ष्य से भगवान् महावीर के दर्शनों का आकांक्षी होकर चेलनादेवी के साथ समवसरण में भव्य जीवों के लिये दयानिधि भगवान महावीर
के समीप पहुँच गया। त्रिः परिक्रम्य तं भक्त्या जराजन्ममृतित्रयम् । बन्दीकृत्य प्रणम्याथ संपूज्य विधियत्ततः ।।११८।। नृकोष्ठगः श्रेणिकोऽसौ वाक्यमेवमुथाच हि । धन्योहं कृतकृत्योहं अद्य नाथ त्वदीक्षाणात् ||११६ ।। मतुल्याकृतिपापिष्ठः त्वयानुभुवि ईरितः। त्वत्सङ्गमान्महाभाग्यभाजनत्वं ममागतम् ।।१२०।। यतो दीनदयालुस्त्वं स्वभावात्परमेश्वर । कर्मविद्धे नते दीने, दयां कुरू मयि प्रभो ।११२१।। अन्वयार्थ - तं = भगवान् महावीर को, त्रिः = तीन बार, परिक्रम्य =
परिक्रमा करके, जराजन्ममृतित्रयम् = जन्म. बुढ़ापा और मरण तीनों को, बन्दीकृत्य = बन्दी बनाकर अर्थात् सीमित या मर्यादित करके, भक्त्या = भक्ति से, प्रणम्य = प्रणाम करके, अथ (च) = और, विधिवत् = पूजा विधि के अनुरूप. (तं = उनको), संपूज्य = अच्छी तरह से पूजकर, असी = वह, श्रेणिकः = राजा श्रेणिक, नृकोष्ठगः = मनुष्यों के कोठे में स्थित, (भूत्वा = होकर), एवं = इस प्रकार. वाक्यम् = वचन. अवाच = बोला. त्वदीक्षणात् = तुम्हारे दर्शन से, नाथ! = हे स्वामी!, अद्य = आज, मत्तुल्याकृतिपापिष्टः = मेरे समान