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श्री सम्भेदशिखर माहात्म्य तत्क्षण ही अर्थात् दीक्षा लेने के क्षण से ही उसी समय, सः = उन्होंने, धुर्व = ध्रुव, मनःपर्ययत्वं = मनःपर्ययज्ञान को, लेभे
= प्राप्त किया। श्लोकार्थ . उसके बाद जल्दी ही अपने पुत्र के लिये राज्य देकर
लौकान्तिक देवों से स्तुत होते और इन्द्र आदि देवों से नमस्कार किये जाते हुये प्रभु ने हर्ष से विजयसेना नामक शुभ पालकी पर चढ़कर और वन में जाकर आषाढ वदी दशमी के दिन एक हजार राजाओं के साथ विश्वनन्दि से स्वयं दीक्षा ग्रहण कर ली तथा उसी समय उन्होंने ध्रुव मनःपर्ययज्ञान अर्थात् विपुलमति मनःपर्ययज्ञान को प्राप्त कर लिया। ततो वीरपुरं गत्वा द्वितीयदिवसे प्रभुः।
पूजितो दत्तभूपेन तत्राहारं समग्रहीत् ।।४६।। अन्वयार्थ - ततः = उसके बाद, द्वितीयदिवसे = दूसरे दिन. वीरपुरं =
वीरपुर नगर को, गत्वा : जाकर. दत्तभूपेन - दत्त नामक राजा से. पूजितः = पूजित होते हुये, प्रभुः = मुनिराज ने. तत्र = उस राजा के घर पर. आहारं - भोजन को, समग्रहीत्
= ग्रहण कर लिया। श्लोकार्थ - उसके बाद दूसरे दिन वीरपुर जाकर वहाँ दत्त राजा से पूजित
होकर मुनिराज ने वहीं अर्थात् राजा के घर पर आहार ग्रहण
किया। प्रभोराहारसमये पश्चाश्चर्याणि भूपतिः ।
समीक्ष्य मनसा नूनममन्यत तं जगदीश्वरम् ।।४६ ।। अन्वयार्थ - प्रभोः = मुनिराज के, आहारसमये = भोजन करने के काल
में, भूपतिः = राजा ने, पञ्चाश्चर्याणि = पाँच आश्चर्यों को, समीक्ष्य - देखकर, नूनं = निश्चित, मनसा :: मन से, तं
= उनको, जगदीश्वरं = जगत् का स्वामी, अमन्यत = माना। श्लोकार्थ - मुनिराज के आहार काल में राजा ने पंचाश्चर्यों को देखकर
निश्चित मन से उन्हें जगत् का स्वामी मान लिया।