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विंशतिः श्लोकार्थ - उसी दिन तीनों लोक के स्वामी स्वरूप तीर्थङ्कर प्रभु होकर
वह अहमिन्द्र का जीव स्वर्ग से अवतरित होकर दिक्कुमारियों द्वारा परिशोधित उस रानी के गर्भ में प्रविष्ट हुआ। गर्भागते भगवति प्रसेदुर्हरितोखिलाः ।
वयुताश्च सुखदा अभूत्सुखमयं जगत् ।।२६।। अन्वयार्थ · भगवति = भगवान के, गर्भागते = गर्भ में आने पर, अखिला:
= सम्पूर्ण, हरितः = दिशायें, प्रसेदुः = प्रसन्न हुई, सुखदाः = सुख देने वाली, वाताः = वायु-हवायें, बवुः = बहने लगी, च = और जगत् = संसार, सुखमयं = सुखमय, अभूत =
हो गया। श्लोकार्थ - भगवान के गर्भ में आ जाने पर सारी दिशायें प्रसन्न हो गयी.
सुखद वायु बहने लगी और सारा ही जगत् सुखमय हो गया। दशम्यामथ चाषाढ़े कृष्णायां योग उत्तमे।
अजीजनज्लगन्नाथं प्रादेवी सुलक्षणा ।।३०।। अन्वयार्थ - च .. और, अथ = इसके बाद, सुलक्षणा = शुभ लक्षणों से
युक्त, वप्रादेवी = वप्रा देवी ने, आषाढ़े - आषाढ़ मास में, कृष्णायां = कृष्णा, दशम्यां = दशमी के दिन, उत्तमे = उत्तम, योगे = योग होने पर, जगन्नाथं = जगत् के स्वामी तीर्थङ्कर
को, अजीजनत् = उत्पन्न किया। श्लोकार्थ - गर्भकाल पूरा हो जाने के बाद शुभ लक्षणों वाली उस रानी
ने आषाढ कृष्णा दशमी को उत्तम योग होने पर तीर्थङ्कर शिशु को जन्म दिया। पुरुहूतस्तदवेत्यय जयध्यानं प्रजल्पकः | सामरस्तत्र तं प्रेम्णा समादाय जगत्प्रभुम् ।।३१।। गतवान्स्वर्णशैलेन्द्र तत्र संस्थाप्य तं विभुम् ।
विधिनास्नफ्यद्वार्भिः घटस्थैः क्षीरसिन्धुजैः ।।३२।। अन्वयार्थ - तद् = प्रभु के जन्म को, अवेत्य = जानकर, एव = ही,
जयध्वानं = जय ध्वनि को, प्रजल्पकः = उच्चारते हुये, सामरः