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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य को दे दिया। स्वयं बने तपोदीक्षां धृत्वा निर्याणमानसः ।
एकादशागभृन्नूनं दध्यौ षोडशभावनाः ।।१४।। अन्वयार्थ - स्वयं = स्वयं ही, निर्वाणमानसः = मोक्ष की इच्छा को मन
में रखने वाले उस राजा ने, वने = वन में, तपोदीक्षां - तपश्चरण के लिये मुनिदीक्षा को, धृत्वा = धारण करके, नूनं = निस्सन्देह रूप से, एकादशाङ्गमृत् = ग्यारह अयों को धारण करने वाला, (भूत्वा = होकर), षोडशभावनाः = सोलह
कारण भावनाओं को, दध्यौ = मन में धारा अर्थात् सोचा। श्लोकार्थ - स्वयं मोक्षेच्छा से सम्पन्न मन वाले उस राजा ने उस वन
में ही तपश्चरण हेतु दीक्षा को धारण करके ग्यारह अगों
के धारी होकर सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन किया। बद्ध्वासौ तीर्थकृन्नाम स्वायुष्यान्ते मुनीश्वरः । कृत्वा शरीर त्यजनं हि प्राप स उत्तमं पदम् ।।१५।। सर्वार्थसिद्धिदं नाम निर्मलानन्तसागरम् ।
गत्वा तत्राहमिन्द्रोऽभूत् देवदेवीकृतादरः ।।१६।। अन्वयार्थ - तीर्थकृन्नाम = तीर्थङ्कर नाम कर्म को, बद्ध्वा = बाँधकर,
असौ = उन मुनिराज ने. स्वायुष्यान्त = अपनी आयु के अन्त में, शरीरत्यजनं = शरीर का त्याग, कृत्वा = करके, निर्मलानन्तसागरं = निर्मलता के अनन्त सागर स्वरूप, सर्वार्थसिद्धिदं = सर्वार्थसिद्धि नाम = नामक, उत्तमं = उत्तम, पदं = स्थान को, प्राप = प्राप्त किया, तत्र = उस सर्वार्थसिद्धि में, गत्वा = जाकर, सः = वह, देवदेवीकृतादरः = देव देवियों द्वारा आदर पाने वाला, अहमिन्द्रः = अहमिन्द्र,
अभूत् = हो गया। श्लोकार्थ - तीर्थकर नामकर्म को बांधकर उन मुनिराज ने अपनी आयु
के अन्त में शरीर का त्याग करके निर्मलता के अनन्तसागर स्वरूप सर्वार्थसिद्धि को देने वाला उत्तम पद प्राप्त कर लिया। सर्वार्थसिद्धि में जाकर वह मुनिराज देव देवियों से पूजे जाते