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________________ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य पुरुषों के लिये प्रिय राजा ने प्रमुख--उत्तम सांसारिक सुख को भोगा। मनोहरयने भूपः एकदासो समागतम् । जगाराभिधं श्रुत्या तमधावत्प्रवन्दितुम् ।।७।। अन्वयार्थ - एकदा = एक दिन, मनोहरवने = मनोहर वन में, जगद्वराभिधं = जगद्वर नामक मुनिराज को, समागतं = आया हुआ, श्रुत्वा = सुनकर, असौ = वह, भूपः = राजा. तम् = उनको, प्रवन्दितुं - नमस्कार करने के लिये, अधावत् = दौडा। श्लोकार्थ - एक दिन मनोहर वन में जगद्वर नामक मुनिराज को आया हुआ सुनकर, उनको प्रणाम करने के लिये दौड़ा। सम्माण तदनं धर्म नत्या युनिराजं सुभक्तितः । अपृच्छत्श्रावकानां धर्म स्वयं स शिवकार्मुकं ।।८।। अन्वयार्थ - तद्वनं -. उस वा को, सम्पाप्य = प्राप्त करके, सुभक्तितः = सम्यक भक्ति से, मुनिराजं = मुनिराज को, नत्वा = प्रणाम करके, सः - उस राजा ने, स्वयं = स्वयं ही, श्रावकानां श्रावकों के लिये, शिवकार्मुकं = मोक्ष रूपी कार्य करने के योग्य. धर्म = धर्म को, अपृच्छत् = पूछा। श्लोकार्थ - उस वन में पहुंचकर सम्यक भक्ति से उस राजा ने मुनिराज को प्रणाम करके श्रावकों के लिये मोक्ष कार्य करने की योग्यता वाले गृहस्थ धर्म को पूछा। एकादशप्रतिमकधर्मः श्रावकाचारमुत्तमम् । निर्धार्य मुनिना प्रोक्तो लोकव्यवहितावहः ।।६।। अन्वयार्थ - मुनिना = मुनिराज के द्वारा, उत्तमम् = उत्तम, श्रावकाचारं = श्रावकाचार का, निर्धार्य निर्धारण करके, लोकव्यवहितावहः - लोक विभक्तता को वहन करने वाला, एकादशप्रतिमकधर्मः = ग्यारह प्रतिमाओं विषयक धर्म, प्रोक्तः = बताया गया। श्लोकार्थ - मुनिराज के द्वारा श्रावकों के उत्तम आचरण का निर्धारण करके लोक से भेद कराने वाला धर्म जो ग्यारह प्रतिमाओं के पालने से होता है उसे बताया।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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