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________________ अथ विंशमोऽध्यायः. नत्वा नमिनाथपादाब्जे मुनिश्रमरसेविते । सदाबिकसित्तप्रेम्णाहं मूर्धा च अमरायितम् ।।१।। नमिनाथचरितं यक्ष्ये तत्कूटगिरिवर्णनम् । वर्णनात्छूयणात्पुंसः कोटिकल्मषनाशिनम् ।।२।। अन्वयार्थ - अहं = मैं, सदा = हमेशा, विकसित प्रेम्णा = विकसित प्रेम से. मूर्ना = मस्तक से. मुनिभ्रमरसेविते = मुनि रूपी भ्रमरों से पूजे जाते हुये, नमिनाथपादाब्जे = तीर्थङ्कर नमिनाथ के चरण कमलों को, नत्वा = नमस्कार करके, नमिनाथचरितं = तीर्थंकर नमिनाथ के चरित को, च = और, तत्कूटगिरिवर्णन = उनके कूट सहित गिरि के वर्णन को, वक्ष्ये = कहता हूं (तत् = वह), वर्णनात् = वर्णन करने से, श्रवणात् = सुनने से, पुंसः = पुरुष के. कोटिकल्मषनाशिनं = एक करोड़ पापों का नाश करने वाला, (अस्ति = है)। श्लोकार्थ - मैं सदा ही प्रफुल्लित मन से सिर झुकाकर तीर्थङ्कर नमिनाथ के मुनिजनों द्वारा पूजे जाते हुये चरणकमलों को प्रणाम करके उनके ही चरित को तथा उनके मित्रधरकूट सहित पर्वलराज के वर्णन को कहता हूं| कवि के अनुसार उसका वह कथन वर्णन करने से और सुनने से पुरुष के एक करोड़ पापों को नष्ट करने वाला है। जम्बूद्वीपे महापुण्ये भारते क्षेत्र उत्तमे । विषयः कौसलाख्योऽस्ति प्रसिद्धो जगतीतले ।।३।। अन्वयार्थ - जम्बूद्वीपे = जम्बूद्वीप में, महापुण्ये = अत्यधिक पवित्र, मारते = भारत, क्षेत्रे = क्षेत्र में, उत्तमे = आर्यखण्ड में, विषयः = देश. कौसलाख्यः = कौसलनामक, अस्ति = है, जगतीतले = पृथ्वी पर।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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