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________________ ५४E श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य करके तथा वहीं दारूण तपश्चरण करके शुक्लध्यान में आरूढ़ हुये और केवलज्ञान से सुशोभित होते हुये वे सभी लोग शोक के सागर स्वरूप संसार में काम को मूल से उखाड़ते हुये निर्जर नामक कूट से सिद्धपद पाकर मुक्त हो गये। एवं प्रभावसम्पन्नो निर्जराख्यगिरीशितुः। कूटः सदावन्दनीयो भव्यैर्भवमुमुक्षुभिः ।।७४।। अन्वयार्थ - एवं = इस प्रकार के प्रभावसम्पन्नः = प्रभाव से संयुक्त, निर्जराख्यगिरीशितु कूट: - सम्मेदशिखर का निर्जरा नामक कूट, भवमुमुक्षुभिः = भव से मुक्त होने की इच्छा रखने वाले. भध्यैः = भव्य जीवों द्वारा, सदा = हमेशा, चन्दनीयः = प्रणाम करने योग्य, (अस्ति = है)। श्लोकार्थ . गिरीश समोदशिखर का इस प्रकार के प्रभाव से सम्पन्न यह निर्जरा नामक कूट संसार से मुक्त होने की इच्छा रखने वाले मुमुक्षु भव्य जीवों द्वारा सदा ही वंदना करने योग्य है। कोटिप्रोषधफलभाक् तदावशादेककूटमभिवन्ध । वन्देत योऽखिलानि प्राप्नोत्येवामृतालयं सुज्ञः।।७५ ।। अन्वयार्थ - यः = जो, कोटिप्रोषधफलभाक = एक करोड़ प्रोषधोपवास का फल प्राप्त करने वाला, एककट = एक मिर्जर कट को, अभिवन्द्य = प्रणाम करके, अखिलानि = सम्पूर्ण कूटों को, वन्देत = प्रणाम करे, तत् = तो, आवशात् = अवश्य, एव = ही, (सः वह), सुज्ञः = सुबुद्धि, अमृतालयं - मुक्ति अर्थात् सिद्ध पद को, प्राप्नोति = प्राप्त कर लेता है। श्लोकार्थ - जो कोई भी एक करोड़ प्रोषधोपवास के फल को प्राप्त करने का अधिकारी होकर उस एक निर्जर कट की वंदना करके सम्पूर्ण कूटों की वन्दना करे तो अवश्य ही वह बुद्धिमान् मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। श्रीमुनिसुव्रत उदगात् यस्मात्कूटादनन्तसुखभूमिम् । भव्यैर्वन्दितमनिशं निर्जरकूटं नमामि तं भक्त्या ||७६।।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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