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एकोनविशतिः
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हो गया।
तत्रोक्ताखिलभावधृक् = वहाँ बतायीं गयीं सारी योग्यताओं को धारण करने वाला, शक्रः = इन्द्र, अभूत् श्लोकार्थ सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन करने से वह मुनिराज तीर्थकर नामकर्म को प्राप्त करके विधिवत् संन्यासमरण की विधि को धारण करके और आयु के अन्त में देह को छोड़कर वहाँ से प्राणत स्वर्ग में बीस सागर की आयु वाला इन्द्र हो गया । वहाँ वह उन सारी योग्यताओं को धारण करता था जो वहाँ बतायीं गयीं है।
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हव्यसंचयम् ।
पदार्थान्नव संभव चतुर्दशगुणस्थानान्यसौ विज्ञाय वै तत्त्वतः ॥ २० ॥ ॥ ध्यायन् सिद्धानशेषांश्च तद्विम्बानद्भुतांस्तथा । पूजयन्नायुषः पूर्ति पूर्ति चकारातुलमोदभाक् ||२१||
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अन्वयार्थ (तत्र = उस स्वर्ग में) नव नौ पदार्थान् = पदार्थों को, संभाव्य = सम्यक् भाकर अर्थात् विचार करके, द्रव्यषट्कं षड्विधद्रव्यों को च और चतुर्दशगुणास्थानानि = चौदह गुणस्थानों को, तत्त्वतः यथार्थ रूप से, विज्ञाय = जानकर, वै पादपूरक अव्यय अशेषान् सम्पूर्ण सिद्धान् = सिद्ध 'भगवन्तों को, ध्यायन् = ध्याते हुये, तथा च = और, अद्भुतान् - आश्चर्यकारी, तद्विम्वान् उनके बिम्बों को पूजयन् = पूजते हुये, अतुलमोदभाक् अनुपम आनन्द का भोग करने वाले, असौ = उस इन्द्र ने आयु की पूर्ति पूर्ति को चकार किया । श्लोकार्थ वहाँ उस स्वर्ग में नौ पदार्थों को अच्छी तरह विचार कर, षड्विध द्रव्यों और चौदह गुणस्थानों को यथार्थतः जानकर. सम्पूर्ण सिद्ध भगवन्तों को ध्याते हुये और अद्द्भुत सिद्ध बिम्बों की पूजा करते हुये अनुपम आनंद को भोगते हुये उस इन्द्र ने अपनी आयु पूर्ण की।
आयुषः
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षण्मासमात्रमस्त्यायुः ज्ञात्वा स्वावधितो हरिः । तीर्थकरो ह्ययं भविता हर्षितोऽभूदिति भृशम् । । २२ ।।
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