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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य तथा उन मुनिराज के लिये उत्तम आहार देकर अपने आपको कृतकृत्य मानने की तरह ही पाँच आश्चर्यो को देखा। मुनिराज पुनः वन में चले गये। षड्दिनावधिमौनस्थस्तप उर्ग विधाय सः ।
अशोकमूले सम्पाप केवलज्ञानमुत्तमम् ।।४।। अन्वयार्थ - पड्दिनावधिमौगस्थः = छह दिन तक मौनधारण किये हुये.
सः = उन मुनिराज ने. उर्ग = उग्र, तपः = तपश्चरण को, विधाय - करके, अशोकमले - अशोक वृक्ष के मूल में, उत्तम :: काभ केचललान : केपाहा को सार = प्राप्त कर
लिया। श्लोकार्थ - छह दिन तक गौन व्रत में स्थित उन मुनिराज ने उग्र
तपश्चरण करके अशोकवृक्ष के नीचे उत्तम केवलज्ञान प्राप्त
किया। मेचकायां द्वितीयायां पौषे सम्प्राप्य केवलम् ।
यथोक्तं भूत्वा समवसारे भाति स्म योगराट् ।।४८, ।। अन्वयार्थ - पौष -- पौष मास में, मेचकायां = कृष्ण, द्वितीयायां = द्वितीया
कं दिन, केवलं = केवलज्ञान को, सम्प्राप्य = प्राप्त करके, यया - जैसा, उक्तं = कहा गया है, (तथा = वैसे). भूत्वा -- होकर, समवसारे = समवसरण में योगराट् = संयोग
केवली प्रगु, भाति स्म = सुशोभित हुये। श्लोकार्थ - पौष का द्वितीया के दिन केवलज्ञान प्राप्त करके जैसा
कथित है वैसे ही होकर वह संयोग केवली समवसरण में सुशोभित हुये। उच्चरन् दिव्यनिनादं स क्षेत्रेषु विहरन्मुदा।
मासमात्रायुरूदगात् भूमिरथं स्वर्णपर्वतम् ।।५।। अन्वयार्थ - स. = वह प्रभु, दिव्यनिनादं - दिव्यध्वनि का, उच्चरन =
उच्चारण करते हुये, (च = और), क्षेत्रेषु = क्षेत्रों में, मुदा - हर्ष उत्साह से, विहरन् = विहार करते हुये, मासमात्रायुः =