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अष्टदशः
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समुत्सय अच्छी तरह से उत्साहित होकर सः = उसने, नमिस्वामिनः = मुनिराज नमिस्वामी के समीपे = पास में, कल्मषनाशिनीं = पाप को नष्ट करने वाली दीक्षां मुनिदीक्षा को जग्राह ग्रहण कर लिया, सिद्धालयस्य सिद्धालय की, सोपानां = सीढ़ी स्वरूप तां = उस मुनिदीक्षा को, प्राप्य = प्राप्त करके, अतीव अत्यधिक हर्षितः प्रसन्न, (स: - उन मुनिराज ने) क्रमात् = क्रमशः एकादशाङ्गानि ग्यारह अङ्गों चतुर्दशपूर्वरंग = चौदह पूर्वो को अपि = भी, धृत्वा = धारण करके. षोडश = सोलह कारणानि = कारणों को, सम्भावयामास = सम्यक प्रकार से भाया ।
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सन्यसत्प्रभुः । तनुं त्यक्त्वा गतः सर्वार्थसिद्धिं स्वतपोबलात् ।। १५ ।।
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श्लोकार्थ तब अपने पुत्र के लिये राज्य देकर अनेक राजाओं से युक्त हुआ वह राजा वन में आ गया वहाँ अच्छी तरह से उत्साहित होकर उसने मुनिराज नमि स्वामी के पास में पापों को नष्ट करने वाली मुनिदीक्षा को ग्रहण कर लिया तथा सिद्धालय की सीढ़ी के रूप में उस मुनिदीक्षा को प्राप्त करके अत्यधिक प्रसन्न उन मुनिराज ने क्रम से ग्यारह अङ्गों और चौदह पूर्वी को धारण करके सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन किया । तीर्थकृन्नामसम्बध्वाऽयुषोऽन्ते
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अन्वयार्थ तीर्थकृन्नाम = तीर्थकर नाम कर्म को सम्बध्वा = बांधकर, आयुषः आयु के अन्ते = अन्त में सन्यसत्प्रभुः = सन्यासमरण विधि को करते हुये मुनिराज तनुं शरीर को. त्यक्त्वा = छोड़कर, स्वतपोबलात् अपने तप के बल से. सर्वार्थसिद्धिं = सर्वार्थसिद्धि को गतः = चले गये ।
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श्लोकार्थ तीर्थकर नाम कर्म की प्रकृति को बांधकर आयु
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के अन्त
में संन्यास मरण की प्रतिज्ञा वाले मुनिराज ने शरीर को छोड़कर अपने तपश्चरण के बल से सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त कर लिया ।