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________________ सप्तदशः श्लोकार्थ — ४६६ हो गया, (यः पर, असौ = वह, दीक्षितः = दीक्षित, अभवत् जो), नाटकं = नाटक, कूट कूट को वन्देत करे, सः = वह, भवसागरं संसार सागर को तरेत् = तैर H = प्रणाम · ले । - = = वह समय अपने पर अर्थात् तरुण होने पर राजा पद को प्राप्त करके इन्द्र के समान सुशोभित हुआ। कुछ समय पश्चात् एक दिन उस राजा का समागम एक चारण ऋद्धिधारी मुनिराज से हो गया। तब उस राजा ने उन मुनिराज को पूछा- हे मुनिराज ! तीनों लोकों में वह क्या है जो आप नहीं जानते हों । इसलिये हे दयानिधान! आप मुझे मोक्ष का मार्ग दिखायें। राजा के ऐसा पूछने पर मुनिराज ने राजा को कहा कि सम्मेदशिखर की यात्रा मुक्ति का प्रधान उपाय है और सारी सिद्धियों को देने वाली है। इस प्रकार मुनि वचनों से वह राजा सम्मेदशिखर की यात्रा के लिये उन्मुख अर्थात् तैयार हुआ संघ को पूजकर एक कम एक करोड भव्य जीवों के साथ सम्मेद शिखर पर्वत पर गया तथा उत्तम नाटक कूट की वन्दना करके उन भव्य जीवों के साथ वहीं पर दीक्षित हो गया। जो भी नाटक कूट को प्रणाम करे वह भवसागर से तिर जाये । = षण्णवत्युक्त कोट्युक्तप्रोषधव्रतपुण्यतः । एककूटनमस्कारफलमपीदृग्भवेदिह भुवि । ।७६ ।। जिन एव फलं विन्द्यात् सर्वकूटाभिवन्दिनः । तद्विषये कथं वक्तुं शक्यं मे चाल्पमेधसा ।।७७ १1 अन्वयार्थ – इह = इस भुवि - पृथ्वी पर षण्णवत्युक्तको ट्युक्तप्रोषधव्रतपुण्यतः = छियान्चे करोड़ प्रोषधव्रत के पुण्य से, (यादृक् = जितनी ), ( फलं = फल ). मवेत् = हो, ईदृक इतना. (एव = ही). एककूटनमस्कारफलमपि एक कूट को नमस्कार करने से होने वाला फल भी भवेत् = होये । सर्वकूटाभिवन्दिनः = सारी कूटों की वंदना करने वाले के, फलं = फल को जिन एव जिनेन्द्र भगवान् ही, विन्द्यात् = = = .
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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