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सप्तदशः
के साथ वहाँ आकर तथा कौतुकपूर्ण होकर प्रभु को लेकर तेज गति से अर्थात् जल्दी ही सुमेरू पर्वत पर चला गया। इसके बाद वहाँ पाण्डुकशिला पर जगत्पति शिशु को बैठाकर देवों द्वारा लाये गये क्षीर सागर के जल से भरे हुये बड़े-बड़े कलशों से जयध्वनि का उच्चारण करते हुये जगत्गुरू
तीर्थकर शिशु का विधिपूर्वक अभिषेक किया। पुनर्गन्धोदकैर्देवमभिषिच्याथ भूषणैः ।
दिव्यैः सम्भूष्य देवेशं कृतवान् तन्मुति हरिः ।।३१।। अन्वयार्थ :- अथ = और, गन्धोदकैः = सुगन्धित जल से. पुनः = दुबारा,
देवं = प्रभु का, अभिषिच्य = अभिषेक करके, दिव्यैः = दिव्य, भूषणैः = आभूषणों से, देवेशं - उन तीर्थङ्कर प्रभु को, सम्भूष्य = अलङ्कृत करके, हरिः = इन्द्र ने, तन्नुतिं = उनकी
वन्दना स्तुति को, कृतवान् = किया। श्लोकार्थ . सुगंधित जल से पुनः प्रभु का अभिषेक करके और दिव्य
आभूगों को उन्हें मुनामिज मारके इन्द्र ने टमकी वन्दना
की। भूयस्सम्प्राप्य देवेन्द्रो हस्तिनागपुरं मुदा। भूपाङ्गणे प्रभुं प्रेम्णा संस्थाप्याध समर्चितम् ।।३२।। ताण्डवाडम्बरं कृत्वा तस्याग्ने स पश्यतः । तस्यारनाम कृतवान् स्मरणात्सर्वसिद्धिदम् ।।३३।। मात्रे समर्प्य पश्चात्तं सुदर्शनाभिमतेन स।
जयदेवमघोच्चार्य गतः रवर्गं सहामरैः ।।३४।। अन्वयार्थ – अथ = अनन्तर, देवेन्द्रः = देवों का स्वामी इन्द्र, मुदा = हर्ष
से, भूयः = पुनः. हस्तिनागपुरं = हस्तिनागपुर को, संप्राप्य = प्राप्त करके, भूपाङ्गणे = राजा के आंगन में, प्रेम्णा = स्नेह अथवा विनय से, समर्चितं = पूजा किये जाते हुये, प्रभु = प्रभु को, संस्थाप्य = स्थापित करके, पश्यतः = देखते हुये, तस्य = प्रभु के, अग्रे = आगे, ताण्डवं = ताण्डव नृत्य को. कृत्वा = करके, सः = उस इन्द्र ने, तस्य = उनका, स्मरणात्