________________
लगता । तीर्थ भृमियों का माहात्म्य वस्तुत: यहाँ हैं कि वहां जाने पर मनुष्यों की प्रवृत्ति संसार की चिन्ताओं से मुक्त होकर उस महापाप की भक्ति में आत्मकल्याण की ओर होती है । घर पर नाना प्रकार की मांसारिक चिन्ताएँ और आकलताएं रहती हैं। उसे घर पर अत्मकल्याण के लिए निराकुल अवकाश नहीं मिल पाता । तीर्थस्थान प्रशान्त स्थानों पर होते हैं, प्राय: तो वे पर्वतों पर या एकान्त वनों में नगरों के कोलाहल से दूर होते हैं । फिर भी वहाँ के वातावरण में भी प्रेरणा के बीज छितराये होते है। अतः मनुष्य का मन वहाँ शान्त, निरालाल और निश्चिन्त होकर भगवान की भक्ति और आत्मसाधना में लगता है।
तीर्थक्षेत्रा का पाहात्म्य आचार्यों ने लिखा हैश्री तीर्थ पान्थरजसा बिरजी भवन्ति, तीर्थेषु विभ्रमणतो न भवेभमन्ति । तीर्थव्ययादिह नरा: स्थिर संपदः स्यु, भवन्ति जगदीश मया श्रयन्तः ।।
तीर्थभूमि के मार्ग की रज इतनी पवित्र होती है कि उसके आश्रय से मनुष्य रज रहित अर्थात् कर्म मल रहित हो जाता है । नाथों पर भ्रमण करने से अर्थात् यात्रा करने से संसार का भ्रमण छूट जाता है।
महापुरुषों के शरीर की पूजा भक्त का शरीर करता है और महापुरुष के आत्मा में रहन साले गणों की पूजा भक्त को आत्मा अथवा उसका अन्त:करण करता है । इसी प्रकार महापुरुष वीतराग तीर्थकर अथवा मुनिराज जिस मूखण्ड पर रहे वह भूखण्ड भी पूज्य बन गया । वस्तुतः पूज्य तो वे तीर्थकर या मुनिराज है।
दिगम्बर जैन वीतरागी तीर्थंकरों और महर्षियों ने संयम. समाधि, तपस्या और ध्यान के द्वारा जन्म, जग, मरण से मुक्त होने की साधना की और संसार के प्राणियों को संसार के दुःखों से मुक्त होने का उपाय बताया, जिस मिथ्या मार्ग पर चलकर प्राणी अनादिकाल से नाना प्रकार के भौतिक और आत्मिक दुःख उठा रहे हैं उस मिथ्या मार्ग को ही इन दुःखों का एकमात्र कारण बताकर प्राणियों को सम्यक मार्ग बताया । वे महापुरुष संसारी प्राणियों के उपकारक हैं, मोक्ष मार्ग के नेता माने जाते हैं। उनके उपकारों के प्रति कृतज्ञता प्रगट करने और उस भूमिखाण्ड पर घटित घटना की सतत स्मृति बनाये रखने और इस सबके माध्यम से उन बीतराग देवों, गुरुओं के गुणों का अनुभव करने के लिए उस भूमि पर महापुरुषों का कोई स्मारक बना देते हैं। सभी तीर्थक्षेत्रों की संरचना में भक्तों की महापुरुषों के प्रति यह कृतज्ञता की भावना ही है । निर्वाण क्षेत्र
ये वे क्षेत्र कहलाते है जहाँ तीर्थंकरों या किन्हीं दिगम्बर तपस्वी मुनिराज का निर्वाण हुआ हो । शास्त्रों का उपदंश. व्रत, चारित्र, तप आदि सभी कुछ निर्वाण प्राप्ति के लिए है।