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शीलसन्तोषिताऽशेषैः सद्गुणैः समलङ्कृतः । तपस्वी गृहमध्येऽपि स कदाचिद्वनं ययौ ।। ५८ ।।
अन्वयार्थ
शीलसन्तोषिताऽशेषैः = शीलसन्तोष आदि सभी, सद्गुणैः अच्छे गुणों से, समलङ्कृतः - अलङ्कृत, गृहमध्ये = घर में, अपि भी, तपस्वी = तपस्वी, सः = वह, कदाचिद :
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कभी वनं वन में, ययौ = गया। शील-सन्तोष आदि अनेक सद्गुणों से अलङ्कृत तथा घर में भी तपस्वी वह राजा किसी समय वन में गया। तत्रैकं मुनिराजं स वने संवीक्ष्य तापसम् । अपृच्छन्मुक्तिमार्ग स प्रणम्य तमथानघम् ।। ५६ ।। अन्यथार्थ तत्र --' उसमें सः उस राजा ने एक एक, तापसं = तपस्वी, मुनिराजं = मुनिराज को, संवीक्ष्य देखकर अथ = तदनन्तर, तं . उन, अनघं = पापशून्य मुनिराज को, प्रणम्य - नमस्कार करके, मुक्तिमार्ग मुक्तिमार्ग को अपृच्छत् = पूछा ।
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श्लोकार्थ उस वन में उस राजा ने एक तपस्वी मुनिराज को देखकर और पापशून्य मुनिवर्य को प्रणाम करके उनसे मुक्ति मार्ग को पूछा !
श्लोकार्थ
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श्लोकार्थ
श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
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दर्शितो चिरं तेन मुक्तिमार्गः समुज्ज्वलम् । पुनस्सम्मेदमाहात्म्यं कथितं मुनिना भृशम् ॥ १६० ।। अन्वयार्थ तेन उन मुनिना मुनिराज द्वारा, अचिरं = जल्दी हि ही, समुज्ज्वलः = अच्छी तरह से स्पष्ट करते हुये, मुक्तिमार्गः = मोक्षभार्ग, दर्शितः = दिखाया पुनः = फिर. भृशं = अत्यधिकं सम्मेदमाहात्म्यं = सम्मेदशिखर की वन्दना का महत्त्व कथितम् = कहा गया |
उन मुनिराज द्वारा जल्दी ही सुस्पष्ट मुक्तिमार्ग दिखाया फिर सम्मेदशिखर की वंदना का अत्यधिक महत्व भी कहा।
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तदैव सः गृहमागत्य सम्मेदधरणीभृतः ।
यात्रोद्योगं चकारासौ भेरीध्वानमकारयत् || ६१||
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