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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य की आज्ञा प्राप्त स्वयं कुबेर ने मेघवृष्टि के समान दिव्य रत्नों
को बरसाया। एकदा श्रावणे मासे दशम्यां कृष्णपक्षके |
कृत्तिकायां स्वपर्यङ्के सुप्ता सा भूपतिप्रिया । १६ ।। अन्वयार्थ - एकदा = एक दिन, श्रावणे = श्रावण, मासे - मास में,
कृष्णपक्षके = कृष्ण पक्ष में, दशम्यां = दशमी के दिन, कृत्तिकायां = कृतिका नक्षत्र में, सा = वह, भूपतिप्रिया = राजा की प्रिय पत्नी, स्वपर्यड्के - अपने पलंग पर, सुप्ता
= सोयी। श्लोकार्थ – एक दिन श्रावणवदी दशमी को कृतिका नक्षत्र में वह रानी
अपने पलंग पर सोयी हुई थी। निशावसाने सा देवी स्वप्नानैक्षत षोडश ।
स्वप्नान्ते प्राविशत्स्ववक्त्रान्ते भत्तसिन्धुरम् ।।१७।। अन्ययार्थ – निशावसाने = रात्रि के अन्त में, सा = उस सोयी हुयी, देवी
= रानी ने, षोडश = सोलह, स्वप्नान् = स्वप्नों को, ऐक्षत = देखा, स्वप्नान्ते = स्वप्न देखने के बाद, स्ववक्त्रान्ते = अपने मुख में भीतर, प्राविशत्मत्तसिन्धुरम् = प्रविष्ट होते
मदोन्मत्त हाथी को. ऐक्षत् = देखा। लोकार्थ – रात्रि के अन्तिम प्रहर में उस सोती हुयी रानी ने सोलह स्वप्नों
को देखा तथा स्वप्न देखने के अंतिम क्षणों में अपने मुख
के भीतर प्रविष्ट होते हुये एक मदोन्मत्त हाथी को देखा। ततः प्रबुद्धा सा देवी विस्मिता पत्युरन्तिके |
स्वप्नानकथयत्तान्सः तच्छुत्वा जहर्ष वै ।।१८।। अन्वयार्थ – ततः = उसके बाद, प्रबुद्धा = जागी हुयी, (च = और),
विस्मिता = विस्मय से भरी, सा = उस. देवी - देवी ने, पत्युः = पति के, अन्तिके = समीप में, तान् = उन, स्वप्नान = स्वप्नों को, अकथयत् = कहा, तच्छुत्या = उनको सुनकर, सः = वह राजा, वै = 'यर्थाथतः, जहर्ष = हर्षित हुआ।