________________
श्री सम्मेदशिखर माहाल्य - यात्रा के विषय में, मे = मेरा, एतत् = यह, एव = ही.
फलं = फल, अस्तु = हो। श्लोकार्थ - विद्याधर और उसकी विभूति को देखकर वैसे ही फल की
पाप्ति इस यात्रा से गुझे हो ऐसे निदान बंध से युक्त हुआ
वह ब्राह्मण मन से प्रेरित हुआ। सम्मेदयात्राकर्ताऽसौ ततः सम्प्राप्य पञ्चताम् ।
स्वर्गे चतुर्थे देवोऽभूत् महाभूतिप्रदीपितः ।।६७।। अन्वयार्थ - ततः = उसके बाद, सम्मेदयात्राकर्ता = सम्मेदशिखर की
यात्रा करने वाला, असौ = वह ब्राह्मण, पञ्चतां = मृत्यु को, संप्राप्य = प्राप्त करके चतुर्थे = चौथे, स्वर्गे = स्वर्ग में, महाभूतिप्रदीपितः = महान् विभूति से चमकता-प्रकाशित
होता हुआ, देवः . देव, अभूत् = हुआ | __ श्लोकार्थ - उसके बाद सम्मेदशिखर की यात्रा करने वाला वह ब्राह्मण
मर कर चौथे स्वर्ग में महान् विगृति युक्त एवं दिव्य ज्योति
पूर्ण देव हो गया। ततः स्वर्गाच्युतो भूम्यां भूपतिः स महानभूत् ।
यात्रां सम्मेदशैलस्य चकार विधिवत्पुनः ।६८।। अन्वयार्थ – ततः = उस. स्वर्गात् = स्वर्ग से, च्युतः = च्युत हुआ, सः
= वह, भूम्या - पृथ्वी पर, महान् = एक महान, भूपति: = राजा, अभूत = हुआ. पुनः = फिर से, (सः = उसने), विधिवत् = विधिपूर्वक, सम्मेदशैलस्य = सम्मेदशिखर पर्वत की, यात्र
= यात्रा को, चकार = किया। श्लोकार्थ . उस चौथे स्वर्ग से च्युत हुआ वह देव पृथ्वी पर एक महान्
राजा हुआ। तब उसने फिर से सम्मेदशिखर पर्वत की यात्रा
की। यात्रां कृत्या विरक्तोऽयं दीक्षां धृत्वाथ पायनीम् । एककोटिचतुर्युक्ताऽशीतिलक्षमुनीश्वरैः ।।६६ ।। केवलज्ञानमासाघ शुक्लध्यानधरोऽनघः । अभिवन्ध प्रभासाख्यं कुटं सम्प्राप सिद्धताम् ।।७०।।