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________________ ३२ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य विशेषः कश्चिदस्त्यत्र वर्ण्यते ललितैः पदैः । तच्छाला तः कल्पवृक्षाणां वनमुत्तमम् ||३|| अन्वयार्थ - अत्र यहाँ अर्थात् द्वितीया रूप्यसाल नामक परकोटे के वर्णन में, कश्चिद् = कुछ, विशेषः = विशिष्ट, अस्ति = है, (सः = वह), ललितैः = मनोरम, पदैः = पदों से. वर्ण्यते = कहा जाता है, तच्छालान्तर्गत: = उस रूप्यसाल परकोटे के अन्दर, कल्पवृक्षाणाम् = कल्पवृक्षों का, उत्तम = उत्तम, वनं = वन, (भवति = होता है)। श्लोकार्थ - दूसरे रूप्यसाल परकोटे का वर्णन भी पहिले परकोटे के वर्णन के समान ही समझना चाहिये तथापि उसमें जो कुछ विशिष्ट होता है उसे ललित मनोरम पदों द्वारा कहा जाता है। कवि कहता है कि उस रूप्यसाल परकोटे के भीतर कल्पवृक्षों का उत्तम वन पाया जाता है। तस्मिन्स्तूपावली चाधोमुखदुन्दुभिसन्निभा । दर्शनीयास्पदाः सिद्धनिम्बास्तदुपरि स्थिताः ।।१४।। अन्वयार्थ - तस्मिन् = उस वन में. च = और, अधोमुखदुन्दुभिसन्निभा = नीचे की ओर मुख किये हुये दुन्दुमि वाद्यों के समान, स्तूपावली = स्तूपों की पंक्ति (भवति = होती है) तदुपरि = जिन स्तूपों के ऊपर. दर्शनीपारपदाः = दर्शन करने योग्य, सिद्धबिम्बाः = जिन प्रतिमायें, स्थिताः = विराजमान, (भवन्ति = होती हैं)। श्लोकार्थ - और उस वन में नीचे की ओर मुख किये गये दुन्दुभि वाद्यों की शोभा के समान स्तूपों की पंक्ति होती है। जिन स्तूपों के ऊपर अति रमणीय एवं दर्शनीय जिनेन्द्र प्रतिमायें विराजमान होती हैं। ततो हावली देवक्रीड़ास्थानमनूत्तमम् । देवा विचित्रक्रीडाभिर्विहरन्ति यत्रास्थिलाः ।।५।।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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