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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
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श्लोकार्थ मंत्री ने कहा- हे महीपाल ! निश्चित ही बहुत धन खर्च करके अकाल में भी ध्वनि को सुनना संभव है अन्यथा यह संभव नहीं है ।
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अथवा श्रवणाद्यस्याः ध्वनेः रोगक्षयो ध्रुवम् । घृष्टाङ्गेऽसौ वशं लग्नां व्याधिं न नाशयेत्किम् । । ८२ ।। अन्वयार्थ यस्याः = जिस भेरी की, ध्वनेः = ध्वनि के श्रवणात् सुनने
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घिसी
से. ध्रुवं निश्चित ही, रोगक्षय होता है). अथवा था, अड़गे गयी अर = यह भेरी, वशं गयी, व्याधिं व्याधि का,
रोग का नाश, (भवति शरीर में, घृष्टा जबरजस्ती, लग्नां = लग = क्या, न = 'नहीं, नाशयेत्
- नष्ट करेंगी।
श्लोकार्थ
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श्रुत्वैवं स नृपो भेरीपालमाहूय सत्वरम् । प्राहार्धं भेरीनिर्घोषं श्रावय व्याधिनाशकम् ।। ८३ ।।
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जिस भेरी के ध्वनि को सुनने से निश्चित ही रोग का नाश होता है अथवा शरीर में घिसी गयी वह भेरी जबरदस्ती शरीर में लग गयी व्याधि को नष्ट नहीं करेगी ।
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अन्वयार्थ एवं = ऐसा श्रुत्वा सुनकर, सः = उस नृपः = राजा ने, मेरीपालं - भेरी पालक को, कहा, आहूय बुलाकर, प्राह सत्वरं जल्दी ही, व्याधिनाशकं व्याधि को दूर करने वाले, भेरीनिर्घोषं = भेरी के निर्घोष को, अर्ध = धीरे से, श्रावय = सुना दो।
श्लोकार्थ ऐसा सुनकर उस राजा ने भेरी पालक को बुलाकर कहा कि जल्दी ही तुम मुझे व्याधि मिटाने वाले भेरी के निर्घोष को आधी आवाज अर्थात् धीरे से सुना दो।
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स्वर्णकोटिं प्रदास्यामि तुभ्यं श्रुत्यापि हर्षतः । तद्वाक्यं भूपसन्त्रासात् भेरीपालः स नाग्रहीत् ॥८४॥
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अन्वयार्थ तुभ्यं भेरीपाल तुम्हारे लिये स्वर्णकोटिं = एक करोड़ स्वर्ण मुदायें प्रदास्यामि दूँगा. (इति = इस प्रकार ), हर्षतः = हर्ष से श्रुत्वापि सुनकर भी भूपसन्त्रासात् == राजा के भय
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