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चतुर्दशः
कौमुद्याः = कौमुदी की. कीर्त्या - कीर्ति से, भाति = सुशोभित
होता है। श्लोकार्थ - उस सभा में एक प्रसङ्ग चल गया कि भरत क्षेत्र में सम्यग्दृष्टि
कौन है तब इन्द्र ने स्वयं कहा- एक भावदत्त नामक राजा वहाँ सम्यग्दृष्टि है जो आकाश में चन्द्रमा के समान भामतल
पर अपनी कीर्ति कौमुदी से सुशोभित होता है। इति श्रुत्वाम्बिको देवः आगतो यत्र भूपतिः ।
नवरत्नमयं पात्रं नृपाग्रेऽधत्त सोऽद्भुतम् | १६२।। अन्वयार्थ - इति = यह सब. श्रुत्वा = सुनकर, अम्बिकः = अम्बिक नामक,
देवः = देव, यत्र = जहाँ. भूपतिः = राजा, (आसीत् = था). (तत्र = वहाँ), आगतः = आया, सः = उस देव ने, अद्भुतम् - आश्चर्य पूर्ण, नवरत्नमयं = नौ रत्नों से युक्त, पात्रं =
एक पात्र, नृपाग्रे = राजा के आगे, अधत्त = रख दिया। श्लोकार्थ - इस प्रकार यह सब सुनकर वह अम्बिक नामक देव जहाँ भूपति
था वहाँ आ गया। उस देव ने एक अद्भुत नवरलों से युक्त
एक पात्र--वर्तन राजा के सामने रख दिया। अपृच्छत्किमिति श्रीमान् तदा देव उयाच तम् । इन्द्रेण प्रेषितं पात्रं प्रगृहाण तव प्रभो ।।६३।। चतुर्दश नवोक्तानां रत्नानां निधीनां तथा ।
निधानं कनकनावि पात्रमेतन्महीश्यर ।।६४ ।। अन्वयार्थ - श्रीमान् = उस राजा ने, अपृच्छत् = पूछा, किमिति = यह
क्या है?, तदा = तब. देवः - देव ने, तम् = उस राजा को, उवाच = कहा, प्रभो! = हे राजन्, तव = तुम्हारे, (कृते = लिये), इन्द्रेण = इन्द्र द्वारा, एतत् = यह. पात्रं = पात्र, प्रेषितम् - भेजा गया है, चतुर्दश = चौदह, नव = नौ, उक्तानां = कहे गये, रत्नानां = रत्नों के, तथा = और, निधीनां = निधियों के, निधानं = खजाने, कनकस्रावि = स्वर्ण को निकालने वाले,
पात्रं = पात्र को, महीश्वर = हे राजन्, प्रगृहाण = ग्रहण करो । श्लोकार्थ - भावदत्त नामक राजा ने पूछा-- यह क्या है? तब देव ने राजा