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________________ ४०६ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य श्लोकार्थ - तभी अर्थात् दीक्षा लेने के तत्काल बाद अन्तर्मुहूर्त में ही तीन ज्ञान के धारी उन जगदीश्वर स्वरूप मुनिराज के चौथा उत्तम अर्थात् विपुलमति नामक मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। पुरं पाटलिपुत्राख्यं द्वितीयेहिनगतः प्रभुः । भिक्षायै धन्यसेनाख्यो भूपतिस्तमपूजयत् ।।४०।। अन्वयार्थ - प्रमुः = मुनिराज, द्वितीय = दूसरे, आहन = दिन, भिक्षायै = भिक्षा अर्थात् आहार के लिये, पाटलिपुत्राख्यं = पाटलिपुत्र नामक, पुरं = नगर को, गतः = गये, धन्यसेनाख्यः = धन्यसेन नामक, भूपतिः = राजा ने, तं = उनको, अपूजयत् = पूजा। श्लोकार्थ · दूसरे दिन वह मुनिराज आहार के लिये पाटलिपुत्र नामक नगर में गये वहाँ राजा धन्यसेन ने उनकी पूजा की। परमेश्वरबुद्धया तं सम्पूज्य विधियन्नृपः। दत्वाहारं तदा तस्मै पञ्चाश्चर्याण्यवैक्षत ।।४।। अन्वयार्थ - नृपः = राजा ने, परमेश्वरबुद्धया - परमेश्वर बुद्धि से, तं = उनको, संपूज्य = अच्छी तरह पूजकर, विधिवत् = विधि के अनुसार, आहारं = आहार को, दत्त्वा = देकर, तदा = तभी, पञ्चाश्चर्याणि = पंचाश्चर्यों को, ऐक्षत = देखा। श्लोकार्थ - राजा ने उन्हें परमेश्वर मानकर उनकी पूजा करके विधि के अनुसार उन्हें आहार देकर तभी पंचाश्चर्य देखे। स छद्मस्थैकवर्षस्य नानादेशं गतः प्रभुः । महाघोरतपश्चक्रे शीतयातातपान् सहन् ।।४२।। भस्मीकृत्याथघातीनि पौष्ये सत्पूर्णिमादिने। तूलीवृक्षतले झानं केवलं प्राप्तवान् प्रभुं ।।४३।। अन्वयार्थ · छद्मस्थैकवर्षस्य = छद्मस्थ अर्थात् अल्पज्ञ अवस्था में स्थित एक वर्ष के काल में, नानादेश = अनेक देशों को. गतः = गये हुये, सः = उन, प्रभुः = मुनिराज ने, शीतवातातपान् = शीत, हवा और आतप अर्थात् गर्मी को, सहन् = सहन करते हुये, महाघोरतपः = अत्यधिक घोर तपश्चरण को, चक्रे = किया।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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