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चतुर्दश
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जयशब्दपुरस्सराः = जय शब्दों को पुरस्कृत अर्थात् सामने उच्चरित करते हुये, इन्द्रादिदेवाः = इन्द्र आदि देवता, तत्रैव = वहीं, आगत्य = आकर, अद्भुतं = अलौकिक, शिशु = तीर्थकर शिशु को, समादाय = लेकर, (च = और), सुमेरुपर्वतं = सुमेरूपर्वत पर, गत्वा = जाकर, तत्र = वहाँ, पृथु = बहुत बड़ा या प्रशस्त, उत्सव - उत्सव को चक्रः = किया, शक्रः = इन्द्र ने, क्षीरवारिधिवारिभिः = क्षीरसागर के जल से, प्रभु = प्रभु का, अभिषिज्य = अभिषेक करके, तदन्ते = अभिषेक के बाद, दिः भूमाता - दि. पाताभाभूषणों की माला से, प्रभु = प्रभु को, आभूष्य = अलङ्कृत करके, पुनः – फिर से. रत्नपुरं - रत्नपुर को, प्राप्य = प्राप्त करके. तत्रापि = उस रत्नपुर में भी, उत्सवं = उत्सव को, आकरोत्
= किया। श्लोकार्थ - प्रभु के जन्म को जानकर उस ही समय जयशब्द करते हुये
इन्द्र आदि देव गणों ने वहाँ आकर तथा प्रभु को लेकर और सुमेरू पर्वत पर जाकर वहाँ प्रशस्त और विशाल उत्सव किया । इन्द्र ने क्षीरसागर के जल से प्रभु का अभिषेक करके
और उसके अन्त में प्रभु को दिव्य आभूषणों की माला से अलकृत करके पुनः रत्नपुर आ गया जहाँ उसने उत्सव किया। धर्मकृद्वा धर्मभृद्वा धर्मविद्वा सुरेश्वरः ।
तद्धर्भनाथनामानं कृत्वा स्वर्गमथाऽगमत् ।।२६।। अन्वयार्थ - अथ = इसके बाद, धर्मकृतं = धर्म करने वाला, वा -- अथवा,
धर्मभृद = धर्म से पूर्ण, वा = अथवा, धर्मविद् - धर्म को जानने वाला, (सः = वह), सुरेश्वरः = देवताओं का स्वामी इन्द्र, तद्धर्मनाथनाभानं = उनका धर्मनाथ नाम, कृत्वा = करके,
स्वर्गम् = स्वर्ग को, अगमत् = चला गया। श्लोकार्थ - धर्म करने वाले अथवा धर्म को धारण करने वाले अथवा धर्म
को जानने वाले इन्द्र उनका नाम धर्मनाथ रखकर स्वर्ग चला गया।