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चतुर्दशः
३६५ श्लोकार्थ - पूर्ण चन्द्रमा के कारण अत्यंत उज्ज्वलता को प्राप्त
शरत्कालीन पूर्णिमा को नष्ट होता हुआ देखकर तत्क्षण ही
वह राजा अपने राज्य से विरक्त हो गया। राज्यं च महारथायाथ दत्त्वा हि जिनसेवितः ।
तपो दीक्षां स जग्राह विपिने ष मुनिसेविते ।।७।। अन्वयार्थ - अथ च = और इसके पश्चात्, महारथाय = महारथ के लिये,
राज्यं = राज्य को, दत्वा = देकर, हि = ही, सः = उस, जिनसेवितः = जितेन्द्रियता को चाहने वाले जिनेन्द्र भगवान के भक्त ने, मुनिसेविते = मुनियों द्वारा सनाथ, विपिने = जगल में, तपोदीक्षां = तपश्चरण करने के लिये मुनिदीक्षा
को. जग्राह = ग्रहण कर लिया। श्लोकार्थ - इसके बाद महारथ के लिये राज्य देकर उस जिनसेवित राजा
ने मुनियों से युक्त वन में तपश्चरण हेतु मुनिदीक्षा ग्रहण कर
ली। एकादशाङ्गदृक्र चाथ षोडशामलभावनाः ।
भावयित्वा बयन्धासौ गोत्रां तीर्थकरं वरम् ।।८।। अन्वयार्थ - च = और, अथ = फिर, असौ = उन, एकादशाङ्गदृक =
ग्यारह अगों के ज्ञाता मुनिराज ने, षोडश = सोलह, अमलभावनाः = निर्मलभावनाओं को, भावयित्वा = भाकर, वरं = श्रेष्ठ, तीर्थकरं = तीर्थङ्कर, गोत्रां = पुण्य को, बवन्ध =
बाँधा। श्लोकार्थ - फिर ग्यारह अगों के ज्ञाता उन मुनिराज ने सोलह निर्मल
भावनाओं को भाकर सर्वश्रेष्ठ तीर्थकर प्रकृति नामक पुण्य
को बांध लिया। अन्ते सन्यासविधिना प्राणत्यागं विधाय सः।
सर्वार्थसिद्धिमगमत् तत्रा प्रापाहमिन्द्रताम् ||६|| __ अन्वयार्थ • अन्ते = आयु के अन्त में, सः = उन मुनिराज ने,
संन्यासविधिना = संन्यासमरण की विधि से, प्राणत्यागं = प्राणों का त्याग, विधाय = करके, सर्वार्थसिद्धिम् =
अन्ते विधिना - संन्याय -