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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य शत्रूणां कालरूपश्च स्वर्णकान्तिवलत्तनुः ।
धर्मकृद्धर्भरूपोऽसौ शशास पृथिवीं प्रभुः ।।५।। अन्वयार्थ - धातकीनामसद्वीपे - धातकीखण्ड नामक सुन्दर द्वीप में, पूर्वे
- पूर्व, विदेहे - विदेह क्षेत्र में, उत्तमे = उत्तम, सीतादक्षिणभागे - सीतानदी के दक्षिण भाग में, शुभालयः = सुन्दरता का घर, वत्सदेशः = एक वत्स नामक देश, (आसीत् = था) तत्र = वहाँ, सुसामानगरं = सुसीमा नगर. (आसीन = था). (तत्र - वहाँ), दशरथः = दशरथ नामक. प्रतापवान् = प्रतापी, मित्रागणालादकपूर्णचन्द्रमाः = मित्र जनों को प्रसन्न करने हेतु पूर्ण चन्द्रमा के समान, स्वर्णकान्तिः (इच) = स्वर्ण की कान्ति के समान, ज्वलत्तनुः = प्रकाशित-तेजस्वी शरीर वाला. च = और, 'शुत्रुणां-शत्रुओं के लिये, कालरूपः - काल अर्थात् मृत्युस्वरूप, महान् = एक महान्, राजा = राजा, (अभूत् = हुआ), धर्मकृत् = धर्म करने वाला, (च = और) धर्मरूपः = धर्म स्वरूप, असौ = उस, प्रभुः = राजा ने,
पृथिवीं = पृथ्वी पर, शशास = शासन किया। श्लोकार्थ - सुंदर धातकीखण्ड द्वीप के विदेहक्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण
दिशा में स्थित उत्तम भाग में सुन्दरता का घर स्वरूप एक वत्स नामक देश था, जहाँ सुसीमानगर में दशरथ नामक एक प्रतापी, पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान मित्रों को खुश रखने वाला, स्वर्णकान्ति के समान तेजस्वी शरीर वाला और शत्रुओं के लिये काल अर्थात् मृत्यु स्वरूप महान् राजा राज्य करता था । स्वयं धर्म करने वाला और धर्मस्वरूप उस राजा ने पृथ्वी
पर शासन किया। स शरत्पूर्णिमां दृष्ट्वा पूर्णचन्द्रसमुज्ज्वलाम् ।
नश्वरी तत्क्षणादेव विरक्तोऽभूत्स्वराज्यतः ।।६।। अन्वयार्थ - पूर्णचन्द्रसमुज्ज्वलां = पूर्ण चन्द्रमा के कारण उज्ज्वलता को
प्राप्त, शरत्पूर्णिमां = शरद् ऋतु की पूर्णिमा को, नश्वरी = नष्ट होने वाली, दृष्ट्वा = देखकर, तत्क्षणात् एव = उस ही समय. सः = वह राजा, स्वराज्यतः = अपने राज्य से, विरक्तः = विरक्त, अमूतः = हो गया ।