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________________ ३६७ त्रयोदश वाले, असौ = उस देव ने. द्वाविंशतिसमुद्रायुः = बावीस सागर की आयु को, प्रापत् = प्राप्त किया, च = और उग्रेण = उग्र, तपसा = तप के कारण, दिव्यसौख्यं - देवों को सुलभ सुखों को, अन्वभूत = भोगा अर्थात् उनका अनुमव किया। श्लोकार्थ - सोलहवें स्वर्ग में भवतारक उन मुनिराज ने देव होकर बाबीस सागर की आयु प्राप्त की और उग्र तपश्चरण के कारण प्राप्त दिव्य सुखों का अनुभव किया। अथ जम्बूमति द्वीपे क्षेत्रे भारतभूभृतः । कुरूजाङ्गलदेशोऽस्ति रमणीयः शुभाश्रयः ।।२।। हस्तिनागपुरं तत्र रत्नसेनो महीपतिः । मलयाख्या तस्य राज्ञी महासुकृतदीपिता ||८३।। अन्वयार्थ - अथ = इसके आगे, जम्बूमति = जम्बूवृक्ष से युक्त, द्वीपे = द्वीप में, भारतभूभृतः = भारत मूभाग के, क्षेत्रे = क्षेत्र में, रमणीयः - मनोहर. (च :- और), शुभाश्रयः = सुन्दरता का आश्रय. कुरूजाङ्गलदेशः = कुरूजाङ्गल नामक देश, अस्ति = है, तत्र = उस देश में, हस्तिनागपुरं = हस्तिनागपुर, (अस्ति = है), (तत्र = उस नगर में), रत्नसेनः = रत्नसेन नामक, महीपतिः = राजा, च = और), तस्य = उस राजा की, महासुकृतदीपिता = अत्यधिक पुण्य से कान्ति युक्त, मलयाख्या = मलया नामक, राज्ञी = रानी. (आसीत् = थी)। श्लोकार्थ - जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के भूमाग पर एक रमणीय और सुन्दरता का आश्रय स्वरूप कुरूजागल देश है जिसमें हस्तिनागपुर नामक नगर है जिसके राजा रत्नसेन थे और उनकी रानी मलया थी जो अत्यधिक पुण्यशाली थी। तत्सुतो दिविजेन्द्रोऽभूत् चारूषेणाख्य उत्तमः | महाप्रतापवान् धीरः पुण्यवान् पुण्यकृतप्रियः ||८४|| चारूसेनस्य मन्दिरे चक्रवर्तिनृपाच्चापि । बहवो निधयो जाताः तत्सुखं स नृपोऽन्यभूत् ।।८५।1 अन्वयार्थ - दिविजेन्द्रः = स्वर्ग का वह इन्द्र, चारूषणाख्यः = चारूषण
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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