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त्रयोदशः
वाक्यमब्रवीत् ||६४ ||
आधाय पादयोस्तस्य मस्तकं स दरिद्रकः । करुणार्ददृशायं दृष्टस्तेनेदं किमत्र पातकं नाथ! कृतं पूर्वभवे मया । यतोऽकिञ्चनतां प्राप्य भुञ्जेऽहं दुखमुल्बणम् ।।६५ ।।
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अन्वयार्थ एकदा एकदा दुःखाभिभूतः दुःखों से घिरा हुआ. (च = और), भाग्यविवर्जितः = भाग्यविहीन, सः उस, समुद्रदत्तः = समुद्रदत्त ने भाग्यतः = भाग्य से, एक - एक, मुनिं मुनि को परिषस्वजि निकटता से मिला, सः उस दरिद्रकः = गरीब समुद्रदत्त ने तस्य = उन मुनिराज के, पादयोः = चरणों में, मस्तकं = सिर को, आधाय = रखकर. (प्रणनाम = प्रणाम किया), करूणाद्रदृशा = करूणा से नाम दृष्टि वाले, तेन उन मुनिराज द्वारा, अयं यह दरिद्र,
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दृष्टः = देखे गये, (सः - उसने) इदं = यह, वाक्यं = वाक्य, अब्रवीत् = बोला, नाथ! = हे मुनिराज ! मया मेरे द्वारा, = पूर्वभवे क्या पातकं = पाप कृतम् पूर्वभव में, किं किया, यतः जिस कारण से, अत्र अकिञ्चनता अर्थात् गरीबी को उल्बणं = भयंकर, अतितीव्र, दुःखं रहा हूं।
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इस भव में, अकिञ्चनतां प्राप्य = प्राप्त करके, दुख को, भुञ्जे = भोग
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मुनिः प्राहान्यपर्याये कृतं पुण्यं न च त्वया । ततो दरिद्रतां प्राप्तः त्वं पुण्यादेव शर्मता ॥ १६६ ॥
अन्वयार्थ - मुनिः मुनिराज प्राह =
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श्लोकार्थ एक दिन दुःखों से घिरा हुआ और भाग्यविहीन उस समुद्रदत्त ने भाग्य से एक मुनिराज से भेंट की। उस गरीब ने उन मुनिराज के चरणों में मस्तक को रखकर उन्हें प्रणाम किया । करूणा से नम दृष्टि वाले उन मुनिराज द्वारा देखा गया वह यह वाक्य बोला, हे मुनिराज ! मैंने पूर्व भव में कौन सा पाप किया है जिससे इस जन्म में गरीबी को प्राप्त करके अत्यंत तीव्र दुःख को भोग रहा हूं।
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बोले अन्यपर्याये = अन्य पर्याय
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