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सिंहासन पर सुनके सामने
उस इन्द्र
त्रयोदशः
आभूषणों से, देवदेवं = देवताओं के भी स्वामी जन प्रभु को, सम्भूष्य = अलङ्कृत करके, पुनः = पुनः. तां = उसी. अयोध्यां = अयोध्या में, अगमत् = आ गया, तत्र = उस अयोध्या में, भूपाङ्गणे = राजा के आँगन में, सिंहासनविराजितम् = सिंहासन पर सुशोभित, देवं = बालप्रभु को, समय॑ = पूजकर. तत्पुरोभागे = उनके सामने के भाग में, विधिवत् = विधि अर्थात् समुचित रीति से. (तेन = उस इन्द्र द्वारा), ताण्डवं = ताण्डव नृत्य, कृतम् = किया, अनु = उसके पश्चात्, अनंतगुणबोधत्वात् = अनंतगुणों का बोध कराने वाले होने से, प्रभोः = प्रभु का, अनन्ताख्यं = अनन्तनाथ नामकरण, कृत्वा = करके, मात्र = माता के लिये, समर्प = देकर, अयं
- यह इन्द्र. अमरावती = अमरावती को, गतः = चला गया। श्लोकार्थ - प्रभु का दुबारा सुगन्धित जल से अभिषेक करके और दिव्य
आभूषणों से प्रभु को अलङ्कृत करके वह इन्द्र पुनः अयोध्या में आ गया। वहाँ राजा के आंगन में प्रभु को सिंहासन पर विराजमान करके तथा उनकी पूजा करके उसने प्रभु के सामने साङ्गो पाङ्गक ताण्डवनृत्य किया। फिर अनंतगुणों को जानने वाले एवं उनका बोध कराने वाले होने से इन्द्र ने प्रभु का अनंत नाथ यह नामकरण कर दिया तथा बालक को माता के लिये देकर अमरावती को चला गया। श्रीमद्विमलनाथाच्च गतेषु नववार्धिषु ।
तदपूयन्तरजीवी स बभूवानन्त ईश्वरः ।।३३। __ अन्ययार्थ - श्रीमद्विमलनाथात् - श्री सम्पन्न तीर्थङ्कर विमलनाथ से,
नववार्धिषु = नौ सागर, गतेषु = चले जाने पर, तदभ्यन्तरजीवी = उस नव सागर में अन्तर्भूत जीवन वाले, सः = वह, अनन्तः = अनन्तनाथ, ईश्वरः = तीर्थङ्कर. बभूव
= हुये। श्लोकार्थ - तीर्थङ्कर विमलनाथ के मोक्ष जाने के बाद अनन्तनाथ
तीर्थङ्कर हुये। इनकी आयु भी उपर्युक्त नौ सागर में अन्तर्भूत जानना चाहिये।