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________________ अथ त्रयोदशमोऽध्यायः अनन्तगुणसम्पन्नमनन्तज्ञानसागरम्। अनन्तसुखभोक्तारमनन्तजिनमाश्रये ।। १।। अन्वयार्थ - (अहं = मैं कवि), अनंतगुणसम्पन्नं = अनंत गुणों से पूर्ण, अनन्तज्ञानसागरम् = अनंतज्ञान रूपी सागर, अनन्तसुखभोक्तारं = अनन्तसुख के मोक्ता. अनन्तजिनम् = अनन्तनाथ तीर्थकर का, आश्रये = आश्रय लेता हूं। श्लोकार्थ - मैं कवि अनन्त गुणों के स्वामी, अनंतज्ञान के सागर और अनंतसुख को भोगने वाले अनंतनाथ तीर्थकर की शरण में जाता हूं। स्वयंभूनामकूटाद्यो गतः सिद्धालयं प्रभुः । तत्कथापूर्वक सस्य फूटं स्तोष्यं यथामतिः ।।२।। अन्वयार्थ - यः = जो, प्रभुः - भगवान्, स्वयंभूनामकूटात् = स्वयंभू नामक कूट से, सिद्धालय को गये, तत्कथापूर्वकं = उन प्रमु की कथा पूर्वक, तस्य - उस सम्मेदशिखर की, कटं = कूट की. यथामतिः = जितनी बुद्धि हैं, तथा = वैसा. अहं - मैं, स्तोष्ये = स्तुति करता हूं। श्लोकार्थ - जिस स्वयंभू कूट से जो प्रमु सिद्धालय को चले गये उन प्रभु की कथा पूर्वक मैं अपनी बुद्धि के अनुसार सम्मेदशिखर की कूट की स्तुति करता हूं। प्रसिद्ध धातकीखण्डे पूर्वमेरौ महान् किल । दुर्गदेशोऽस्ति विख्यातः तत्रारिष्टपुरं महत् ।।३।। अन्वयार्थ - प्रसिद्ध = विख्यात, धातकीखण्डे = धातकीखण्ड द्वीप में, पूर्वमेरौ = पूर्वमेरू पर्वत पर. दुर्गदेशः = दुर्ग नामक देश, महान् = विशाल, विख्यातः = सुप्रसिद्ध, अस्ति किल = था, तत्र = उस देश में, महत् = बड़ा, अरिष्टपुरं = अरिष्टपुर नामक नगर, आसीत् = था।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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