SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 356
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४० श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य अन्त्ये = आयु के अन्त में, सन्यासरीतितः = सन्यास मरण की रीति से, तनुं = शरीर को, त्यक्त्वा = छोडकर, तपःसुकृतसंचयात् = तपश्चरण से किये गये पुण्य बंध से. सः = वह, सहस्रार = सहस्रार नामक, सुकल्पे = उत्तम विमान में, अहमिन्द्रः = अहमिन्द्र, बभुव = हो गया सः = वह, हि = ही, अष्टादशसहस्रोक्तवर्षोपरि = अटारह हजार वर्षों बाद, मानसं = मनोभिलषित' अमृत स्वरूप. आहारं = भोजन को, अगृहीत् = ग्रहण करता था, च = और, अष्टादशपक्षोपरि == अठारह पक्ष बीतने पर, अश्वसत् = सांस लेता था, तत्र वहाँ, भुवं = स्थायी अर्थात् अधिक काल तक रहने वाले. परम् = उत्कृष्ट, दिव्योद्भवसुखं = दिव्यता से उत्पन्न सुख को, सान्वभूत् = अनुभूत किया। श्लोकार्थ – उन तपस्वी मुनिराज ने तीर्थकर नामक महापुण्य को बांधकर तथा आयु के अन्त में सन्यास मरण की रीति से शरीर छोड़कर तपश्चरण से कमाये गये पुण्योदय से वह सहस्रारस्वर्ग में अहमिन्द्र देव हुये। वहाँ वह अठारह हजार वर्षों के निकल जाने पर एक बार मानस आहार अर्थात् अमृत पान करते थे तथा अठारह पक्ष के बाद सांस लेते थे। वहाँ उन्होंने अधिक काल तक स्थायी रहने वाले उत्कृष्ट दिव्य सुखों का उपभोग किया। सर्वकार्यक्षमो देवः स्वावधेश्च प्रमाणतः । सिद्धस्मरणकृत्तत्र सिद्धविम्बसमर्चकः ।।१६।। अन्वयार्थ – तत्र = उस स्वर्ग में, सिद्धस्मरणकृत = सिद्धों का स्मरण करने वाला, च = और, सिद्धबिम्बसमर्चक: = सिद्धबिम्बों की अर्चना करता हुआ, देवः = वह देव, स्वावधेः प्रमाणतः = अपने अवधिज्ञान के प्रमाण से, सर्वकार्यक्षमः = सारे कार्यों को करने में समर्थ, (अभूत् = हुआ)। श्लोकार्थ – उस स्वर्ग में सिद्धों का स्मरण करने वाला और सिद्ध भगवन्तो की पूजन में रत वह देव अपने अवधिज्ञान के प्रमाण से सारे कार्यों को करने में समर्थ हुआ।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy