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द्वादशः
अन्वयार्थ
श्लोकार्थ
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३३६
तत्र
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वहाँ, गत्वा - जाकर एनं = इन मुनिराज को, अभिवन्द्य T नमस्कार करके, धर्मार्थकाममोक्षाप्ति-प्रयत्नवरगर्भितां = धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति के लिये श्रेष्ठ प्रयत्न से गर्भित, चतुर्वर्गा = चतुर्वर्ग की, शुभां = शुभ, कथां = कथा को, श्रुत्वा = सुनकर, भवनिर्विण्णमानसः संसार से विरक्त मन वाले एषः = इस राजा ने, राज्ये = राज्य में, पुत्रं = पुत्र को नियोज्य = नियुक्त करके, च और, समुत्सह्य = अच्छी तरह से उत्साहित होकर (तस्य = उन मुनिराज के), सकाशात् = पास से, हि = ही जैनीं जैनेश्वरी, दीक्षां दीक्षा को अग्रहीत् = ग्रहण कर लिया. धैर्यवान् : धैर्य सम्पन्न उन मुनिराज ने एकादश = ग्यारह, अङ्गानि = अङ्गों को धृत्वा = धारण कर श्रद्धया = श्रद्धा से, जैनशास्त्रोक्ताः = जैन आगम में कही गयीं, अखिलाः सारी, भावनाः = भावनाओं को नावयामास गाया। वन में जाकर वहाँ मुनिराज को प्रणाम करके, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रयत्न को बताने वाली शुभ कथा को सुनकर संसार से विरक्त मन उस राजा ने अपने पुत्र को राज्य में नियुक्त करके और अच्छी तरह से उत्साहित होकर उन मुनिराज के पास से ही जैनेश्वरी दीक्षा को ग्रहण कर लिया तथा धैर्य से पूर्ण उन मुनिराज ने ग्यारह अगों को धारण कर श्रद्धा से शास्त्रों में प्रतिपादित सारी भावनाओं को भाया अर्थात् उनका चिन्तवन किया ।
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बद्ध्वा स तीर्थकृद्गोत्रमन्ते सन्यासरीतितः । तपोनिधिस्तनुं त्यक्त्वा तपस्सुकृतसञ्चयात् ||१३|| सहस्रारे सुकल्पे स अहमिन्द्रो हि बभूव च । अष्टादशसहस्रोक्तवर्षोपरि स मानसम् ।।१४।। आहारमगृहीदष्टादशपक्षोपरि
ध्रुवम् । अश्वसच्छान्वभूत्तत्र दिव्योद्भवसुखं परम् ।।१५।।
अन्वयार्थ – सः = उन, तपोनिधिः = तपस्वी मुनिराज ने तीर्थकृत् तीर्थङ्कर नामक, गोत्रं = उत्तम पुण्य को बद्ध्वा - बांधकर.
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