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एकादशः
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तलो जयध्वनिं कृत्वा पुनरायान्नृपालयं । तत्र संपूज्य देवेशं चक्रे ताण्डवमुत्तमम् ।।३३।। श्रेयस्करत्वात् श्रेयानित्यभिधां त्रिजगद्गुरोः ।
कृत्या मात्रे समर्थेनं गतस्स्वर्ग स वासवः ।।३४।। अन्वयार्थ · पुनः = फिर, गन्धोदकस्नान = गंधोदक स्नान को. समाप्य
= समाप्त कर, मुदा :: हर्ष से, अद्भुतैः = अद्भुत, दिव्यैः = दिव्य कांतिपूर्ण, आभरणैः = वस्त्राभूषणों से, विधिवत् = यथादित्र, ३५ = प्रो , जमाबधा :: अलाल किया, ततः = उसके बाद, जयध्वनि = जयकार को, कृत्वा = करके, पुनः = फिर से, नृपालयं = राजा के घर को, आयात् = आ गया, तत्र = वहॉ. देवेशं = देवों के स्वामी तीर्थकर शिशु की, संपूज्य = पूजा करके, (सः = उसने). उत्तम = उत्तम. ताण्डवम् = ताण्डवनृत्य को, चक्रे == किया, श्रेयस्करत्वात = कल्याण को करने वाले होने से, त्रिजगदगुरोः = तीन लोक के गुरू का, श्रेयान् = श्रेयांसनाथ, इति = यह, अमिधा = नाम. कृत्वा = करके. (च = और), एनं = इन बालक प्रभु को, मात्रे = माता के लिये, समर्प्य = देकर, सः- वह, वासवः
= इन्द्र, स्वर्ग = स्वर्ग को. गतः = चला गया। श्लोकार्थ – फिर प्रभु का गन्धोदक स्नान बंद करके, हर्ष से इन्द्र ने प्रभु
को अद्भुत दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित किया तथा उसके बाद जयध्वनि करके पुनः राजा के घर आ गया वहाँ तीर्थङ्कर शिशु की पूजा करके उसने मनोहर ताण्डव नृत्य किया। कल्याण को करने वाले होने से उसने तीनों जगत् के स्वामी का नाम श्रेयांसनाथ करके उन्हें माता के लिये दे दिया। फिर
वह इन्द्र स्वर्ग को चला गया। षट्क्षष्ठिकोटिसम्प्रोक्तसागरेषु गतेषु वै । शीतलेशादभूच्छ्रेयान् तन्मध्ये प्राप्तजीगनः ।।३५।। चतुर्युक्ताशीतिलक्षवर्षायुरभवत्प्रभुः। चापाशीत्युन्नतिं विभ्रदिवाकरजयीरुचिः ।।३६।।