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दशमः
२९७ अन्वयार्थ - तारूण्ये = तरुण अवस्था को प्राप्त होने पर. हि = ही, पैतृक
= पिता द्वारा प्रदत्त. राज्यं = राज्य को, संप्राप्य = प्राप्त करके, शत्रूणां = शत्रुओं का, गर्वहृत् = गर्व हरण करने वाले, (च = और), भित्राणां :- मित्रों का, सुखवर्धनः = सुख बढ़ाने वाले, सः = वह, देवः = स्वामी शीतलनाथ, रराज = सुशोभित
हुये। श्लोकार्थ – तरुण होने पर पिता का राज्या पाकर शत्रुओं का गर्व दूर करने
वाले और मित्रों का सुख बढ़ाने वाले वह शीतलनाथ सुशोभित
हुये। एकदा पटगं दृष्ट्या तुष्टार तत्क्षणांदवेः ।
अर्कस्य स्याद्विनष्टं स विरक्तोऽभूत्स्वराज्यतः ।।३४।। अन्वयार्थ – एकदा = एक दिन, रवेः = सूर्य के. (पुरः = सामने), तुष्टारं
= संतुष्ट करने वाले, पटगं = आवरण स्वरूप वस्त्र को, दृष्ट्वा = देखकर, तत्क्षणात् = उसके बाद, अर्कस्य = सूर्य के. प्रकाश का, विनष्टं = विनाश. स्यात् = होगा, (इति = यह), दृष्ट्वा :: देखकर. सः = वह. स्वराज्यतः = अपने राज्य
से, विरक्तः = विरक्त, अभूत् = हो गया। श्लोकार्थ – एक दिन सूर्य के सामने करके पर वस्त्र से तुष्ट करने वाले
को देखकर उसी क्षण सूर्य के भी प्रकाश का विनाश होगा
यह जानकर वह राजा अपने राज्य से विरक्त हो गया। स्वपुत्राय समर्थाय राज्यं संदाय मुक्तये । लौकान्तिकस्तुतः शक्रप्रभामारुह्य सत्वरम् ।।३५।। देवोपनीतां शिविकां चेन्द्रादिकृतमङ्गलः ]
स्वयं जगाम तपसे यन मुनिजनालयम् ।।३६।। अन्ययार्थ – समर्थाय = समर्थ, स्वपुत्राय = अपने पुत्र के लिये, राज्यं
= राज्य को, संदाय = देकर, लौकान्तिकस्तुतः = लौकान्तिक देवों से स्तुति किया जाता हुआ, च = और, इन्द्रादिकृतमङ्गलः = इन्द्र आदि द्वारा किये गये हैं मङ्गल जिसके ऐसा वह, मुक्तये = मुक्त होने के लिये, सत्वरम् = जल्दी ही. देवोपनीतां