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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य श्लोकार्थ – उस राजा की जयरामा नामक रानी रूपवती, सौभाग्यशालिनी
तथा अपने चमत्कारिक गुणों से पति के मन को हरने वाली ।
अर्थात् मुग्ध करने वाली थी। तद्गृहे यक्षपतिना वृष्टिः पाण्मासिकी तथा ।
कृता 'रत्नमयी नित्यं सौधर्मेन्द्रमुखाज्ञया ।।२०।। अन्वयार्थ – तथा = और, सौधर्मेन्द्रमुखाज्ञया :- सौधर्म इन्द्र की मौखिक
आज्ञा से, यक्षपतिना = यक्षपति कुबेर द्वारा, तद्गृहे = उस रानी के घर में, नित्यं = प्रतिदिन, पाण्मासिकी = छह महिने
तक, रत्नमयी = रत्नों से भरपूर. वृष्टिः = वर्षा, कृता = की। श्लोकार्थ – तथा सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने उस रानी के घर
में प्रतिदिन छह महिने तक रत्नों से भरपूर वर्षा की अर्थात्
रत्न बरसाये। तत्काले चानतात्स्वर्गात् देवागमनवासरे ।
रात्रौ सुवर्णपर्यख्यो रा देवी हनिवेश हिस अन्वयार्थ – तत्काले - उस काल में अर्थात् रत्नवृष्टि के काल में, च =
और, आनतात् = आनत नामक, स्वर्गात् = स्वर्ग से, देवागमन वासरे = देव के आने अर्थात् च्युत होने वाले दिन, हि = ही, रात्रौ :- रात्रि में, सा = वह, देवी = रानी, सुवर्णपर्यङ्के = स्वर्णखचित सुन्दर पलंग पर, संनिवेश = प्रविष्ट हुई अर्थात्
सोयी। अन्वयार्थ – उसी समय रत्नवृष्टि काल में और उस देव के आनतस्वर्ग
__ से च्युत होकर आने के दिन रात्रि में वह रानी स्वर्णखचित
सुन्दर पलंग पर सोयी। फाल्गुणे कृष्णपक्षे च नवम्यां मूलभे शुभे ।
स्वप्नानुषसि सा देवी षोडशैक्षत भाग्यतः ।।२२।। अन्वयार्थ – फाल्गुणे = फाल्गुन माह में, कृष्णपक्षे = कृष्णपक्ष में, नवम्यां
= नवमी के दिन, च = और, शुभे = शुभ, मूलभे = मूलनक्षत्र में, सा = उस, देवी = रानी ने, भाग्यत: = भाग्य से, षोडश