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सप्तमः
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पालकी पर, समारूह्य = चढकर प्रमः = गजा सुपाच. तपः = तप, तप्तं = तपने के लिये, सहेतुकवनं - सहेतुक वन में गतः = चले गये, तत्रा = वहाँ, सहसभूमिपैः = एक हजार राजाओं के, सह = साथ, वेलोपवासकृत् = वेला अर्थात् दो दिन का उपवास करने वाले प्रभु ने, सर्वसिद्धान् = सभी सिद्धों को, नमस्कृत्य = नमस्कार करके, पञ्चभिः = पाँच, मुष्टिभिः = मुष्टियों से, केशान - केशों को, आलुच्य - लोंच कर, विधिवत् = नियमानुसार, तत्रा = वहीं, हर्षत: = प्रसन्नता से.
दीक्षां = मुनिदीक्षा को, जग्राह = ग्रहण कर लिया। श्लोकार्थ - राजा सुपार्श्व को वैराग्य हो गया है ऐसा जानकर सौधर्मेन्द्र
भी वहाँ देवताओं के साथ आ गया। तभी प्रभु भी देवताओं द्वारा लायी गयी मनोगति नामक पालकी पर चढ़कर तपश्चरण करने के लिये वन में चले गये। वहाँ एक हजार राजाओं के साथ बेला उपवास करने वाले प्रभु ने सभी सिद्धों को नमस्कार करके, और पंचमुष्टि केश लोंच करके
नियमानुसार हर्ष पूर्वक मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली। ज्येष्ठशुक्लदले तद्वत् द्वादश्यां सुतिथौ प्रभुः ।
विशाखानाम्नि नक्षत्रे दीक्षितोऽभवदजसा ।।४६।। अन्वयार्थ - ज्येष्ठशुक्लदले = ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में, द्वादश्यां =
बारहवीं, सुतिथौ = सुतिथि को. तद्वत् = उसके समान, विशाखानाम्नि = विशाखा नामक, नक्षत्र = नक्षत्रा में, अजसा = निर्मल मन से, प्रभुः = राजा, दीक्षितः = दीक्षित
हुये, अभवत् = थे। श्लोकार्थ – जेठ सुदी द्वादशी के शुभ दिन विशाखा नक्षत्र में राजा
सुपार्श्व निर्मल मन से दीक्षित हुये थे। परे नि सोमवर्माख्यं पुरं भिक्षार्थमागतः । महेन्द्रदत्तभूपाल दत्तमाहारमुत्तमम् ।।५।। आश्चर्यपञ्चकैर्दीप्तं गृहीत्वा कृतकृत्यताम् । तस्मिन्नारोप्य भूयोऽसौ तपोवनमुपागतः ।।५१।।
अन्वयार्थ - ज्यरहवा. सुतिथी विशाखा