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________________ सप्तमः २०७ - - - विहीन, जितेन्द्रिय प्रभु सुपार्श्व ने सम्पूर्ण पृथ्वी का पालन किया, उसकी रक्षा की। कोटिसूर्येन्दुसङ्काश: विश्वनेत्रानुमोदकः । अशेषतापसंहर्ताऽवर्णनीयः प्रभुरयम् ।।४।। सप्ताङ्गसौख्यं च सिरं गत्वा प्रताप । केनापि हेतुना नूनं विवेक्तुं समुपागतः ।।४।। अन्वयार्थ – कोटिसूर्येन्दुसङ्काशः = करोड़ों सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाशमान, केवलज्ञान रूप विश्वनेत्र के समर्थक, सम्पूर्ण तापों को दूर करने वाले, अवर्णनीयः = वर्णनातीत, प्रतापवान् = पराक्रमी, अयं = इन, प्रभुः = राजा सुपार्श्व ने, सप्तागराज्यसौख्यं = सप्त अगों वाले राज्य सुख को, चिरं = बहुत समय तक, भुक्त्वा, केनापि = किसी भी, हेतुना = बाह्य कारण से, नूनं = निश्चित ही, विवेक्तुं = विरक्ति भाव के लिये, समुपागतः = प्राप्त हो गये। श्लोकार्थ – करोड़ों सूर्य चन्द्रमाओं के समान प्रकाशमान केवलज्ञान स्वरूप विश्वनेत्र अर्थात् सर्वज्ञत्व के समर्थक, सम्पूर्ण तापों को मिटाने वाले, अवर्णनीय और पराक्रमी यह राजा सुपार्श्व बहुत समय तक सप्ताङ्ग सुसज्जित राज्य को भोगकर किसी कारण से निःसन्देह वैराग्यभाव को प्राप्त हो गये। शरीरादि चाखिलं वस्तु त्यनित्येन व्यचारयत् । पूर्वं स्थभुक्तभोगान् सः संस्मार्य विषयोचितान् ।।४।। वृथा कालात्ययं मत्त्या सुनिर्विण्णेन चेतसा । धिङ् मामिति प्रोक्त्वा महावैराग्यमापवान् ।।४४।। अन्वयार्थ – सः = उस सुपार्श्व राजा ने, पूर्व = पहिले, विषयोचितान = इन्द्रियों से भोगे गये भोगों को. संस्मार्य याद करके. अखिलं = सर्व. हि = ही, शरीरादि = शरीर आदि, वस्तु = वस्तुओं को, अनित्येन = क्षणिक रूप से. व्यचारयत् = विचारा. च = और, सुनिर्विण्णेन - विरक्त, चेतसा = मन से, वृथा = व्यर्थ, कालात्ययं = समय की बरबादी, मत्त्वा = मानकर, माम्
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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