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पंष्ठः
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श्लोकार्थ पद्मप्रभु के मोक्ष जाने के बाद निन्यानवें करोड चौरासी लाख बयालीस हजार सात सौ और सत्ताइस संख्याप्रमाण दिव्यज्ञान वाले मुनियों ने मोहन नामक कूट से सिद्धपद को प्राप्त किया।
अन्वयार्थ
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कूटं चानन्दमाहात्म्यं मोहनाख्यं मनोहरम् | यात्रायां योऽभिवन्देत भवाब्धिं स तरेद् ध्रुवम् ।। ७० ।।
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यः = जो, आनन्दमाहात्म्यं = आनंद रूप महिमा से संयुक्त, च और मनोहरम् मनहरण-सुन्दर, मोहनाख्यं = मोहन नामक कूट कूट को यात्रायां = तीर्थवन्दना रूप यात्रा में, अभिवन्देत = पूजे, उसकी वन्दना करे, सः = वह, ध्रुवं निश्चित ही, भवाब्धिं = संसार सागर को, तरेत् = तैर लेवे अर्थात् उससे पार हो जावे ।
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श्लोकार्थ – जो भी तीर्थवन्दना रूप यात्रा में आनन्द देने वाली महिमा
से युक्त और मनोहर, मोहन नामक कूट की वन्दना करता है वह निश्चित ही संसार सागर को तैर लेता है अर्थात् उससे पार हो जाता है ।
प्रोषधव्रतको ट्युक्तफलं तद्वन्दनाल्लभेत । सर्वकूटाभिवन्दारोः फलं वक्तुं न शक्यते । ।७१।।
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कहने के लिये,
अन्वयार्थ - तद्वन्दनात् उस मोहन कूट की वन्दना से, प्रोषधनतकोट्युक्तफलं एक करोड़ प्रोषधोपवास व्रत के फल को लभेत = प्राप्त करे तो, सर्वकूटाभिवन्दारोः सभी कूटों की अभिवन्दना करने चाले भक्त का, फलं = फल को, वक्तुं (कोऽपि = कोई भी), न = नहीं शक्यते श्लोकार्थ एक मोहन कूट की वन्दना करने से प्रोषधोपवास व्रत करने का फल प्राप्त हो जाये तो सभी कूटों की वन्दना करने वाले के फल को कोई भी नहीं कह सकता है ।
= सकता है।
जब एक करोड़
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पूर्वं सुप्रभभूपालः कूटं तं प्राणमन्मुदा । संक्षेपतः कथां तस्य यक्ष्ये शृणुत साधवः । । ७२ ।।