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प्रथमा
अन्वयार्थ - (अहं = मैं). हदि = हारा में, अजितादिमहासिद्धतीर्शकहिपाति
= महान् सिद्ध पद को प्राप्त अजितनाथ आदि बीस तीर्थंकरों को, ध्यात्वा = ध्याकर अर्थात् उनका ध्यानकर, अनुक्रमात = अनुक्रम से, पृथक-पृथक = अलग-अलग, कूटनामानि
= शिखरों के नाम, वक्ष्ये = कहता हूं। श्लोकार्थ - सर्वोत्कृष्ट सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुये अजितनाथ आदि बीस
तीर्थकरों का अपने मन में ध्यान कर मैं क्रमशः अलग-अलग
कूटों अर्थात् शिखरों के नाम कहता हूं – कहूंगा । यस्य सिद्धस्य यत्कूटं तत्तेन स्यादधिष्ठितम् ।
ततस्तन्नाम तत्कूटनाम सम्भाष्यते मया ||१०|| अन्वयार्थ - यस्य = सिट्वस्य = जिस सिद्ध का, यत् कूटं = जो कूट,
(अस्ति = है), तत् = वह कूट, तेन = उनके द्वारा, अधिष्ठितम् = अधिकृत या सुस्थित किया हुआ, स्यात् = हो, ततः = इसलिये. मया = मुझ कवि द्वारा, तत्फूटनाम = उन कूटों के नाम तन्नाम = उन तीर्थङ्करों के नाम (पूर्वक), सम्भाष्यते
= कहे जाते हैं। श्लोकार्थ - जिस सिद्ध अर्थात् सिद्धत्व को प्राप्त तीर्थङ्कर का जो कूट
याने शिखर है, वह शिखर उन्हीं तीर्थङ्कर के लिये अधिकृत समझना चाहिये । फलतः मैं भी सम्मेदशिखर के कूटों के नाम उन तीर्थङ्करों के नाम पूर्वक कहता हूं जिस कूट से जो
तीर्थकर सिद्धत्व को प्राप्त हुये हैं अजितेशस्य यः कूटः स सिद्धवर उच्यते ।
दत्तालिधयलस्तद्वच्छम्भवस्य विदुर्बुधा ।।११।। अन्वयार्थ - अजितेशस्य = अजितनाथ प्रभु का, यः कूटः = जो कूट, (वर्तते
= है), स= वह कूट. सिद्धवरः = सिद्धवर नामक कूट. (बुधैः = विद्वानों द्वारा). उच्यते = कहा जाता है, तद्वत् = उसके ही समान, शम्भवस्य = तीर्थङ्कर संभवनाथ का, (कूटः =