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________________ अथ षष्ठोऽध्यायः श्रीमत्पद्मप्रभं देवं दिव्यत्कमललाञ्चनम् । कायेन मनसा वाचा वन्देऽहं हृदि सर्वदा ।।१।। अन्वयार्थ – अहं = मैं. दिव्यत्कमललाञ्छनम् = कमल के चिन्ह से सुशोभित. देवं = भगवान्, श्रीमत्पद्यप्रमं = अन्तरग बहिरङ्गलक्ष्मी सहित पदमप्रभु को, हृदि = हृदय में, (संस्थित्य = स्थापित करके), मनसा = मन से, दाचा = वचन से, (च = और), कायेन -- काय से, र.वा = हमेशा, वन्दे = नमस्कार करता हूं। श्लोकार्थ - मैं देवदत्त नामक कवि कमल के चिन्ह से सुशोभित तथा अनंत चतुष्ट्य स्वरूप अंतरंग लक्ष्मी एवं समवसरणादि बहिरङ्ग लक्ष्मी से युक्त तीर्थकर देव पद्मप्रभु को अपने हृदय में विराजमान कर उन्हें सतत प्रणाम करता हूं। अखण्डे धातकीखण्डे तत्र पूर्व विदेहके । सीता प्रोतस्विनी तस्याः दक्षिणे भाग उत्तमे ।।२।। यत्साख्यो विषयः श्रीमान् चकास्ति सुखसंपदा । सुसीमानगरं तत्र धनधान्यसमृद्धिमत् ।।३।। अन्वयार्थ -- अखण्डे = अखण्ड, धातकीखण्डे = धातकीखण्डद्वीप में, तन्त्रा = वहाँ. (अपि = भी), पूर्व विदेहके = पूर्व विदेहक्षेत्र में, सीतास्रोतस्विनी = सीता नदी. (अस्ति = है), तस्याः = उसके, दक्षिणे = दक्षिण में, उत्तमे = उत्तम, भागे = स्थान पर, सुखसंपदा = सुखरूपी सम्पदा से. श्रीमान = लक्ष्मी युक्त, वत्साख्यः = वत्स नामक, विषयः = देश, चकास्ति = सुशोभित होता है, तत्र = उस देश में, धनधान्यसमृद्धिमत = धन-धान्य की समृद्धि से भरपूर, सुसीमानगरं = सुसीमा नामक नगर, (अस्ति = है)।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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