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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य के लिये, सन्ततनमस्कारः = हमेशा नमन - प्रणाम, विधेयः = करना चाहिये ।
श्लोकार्थ जिस अविचलकूट पर तीर्थकर सुमतिनाथ ने कर्मों रूपी अन्धकार को दूर करने में सूर्य के समान अतिशय निर्मल योग की संधारित करके तथा काम विधान से अयोगी होकर हजारों मुनिवरों के साथ सिद्ध पद प्राप्त किया सम्मेदशिखर की उस अविचलकूट के लिये निश्चित ही विद्वज्जन प्रणाम करें। विद्वज्जनों को सन्देह रहित होकर सतत नमस्कार करना चाहिये ऐसी यहाँ कामना है।
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अविचलकूटध्यानादविचलसिद्धिं प्रयाति मनुजो है । अविचल भावात्तस्मादविचलसिद्ध स्मरन्तु तं भव्याः । ।७८ ।। अन्वयार्थ – मनुजः मनुष्य, अविचलकूटध्यानात् = अविचलकूट पर ध्यान करने से, अविचलसिद्धिं = अचल अर्थात् शाश्वत सिद्धि को, वै = प्रयाति वस्तुतः = प्रगट कर लेता है, तस्मात् इसलिये, भव्याः - भव्यजन, अविचलसिद्ध्यै शाश्वत सिद्ध पद की सिद्धि के लिये अविचलभावात् अविचल भाव से, तं = उस अविचल कूट का स्मरन्तु = स्मरण करें। श्लोकार्थ मनुष्य अविचल कूट पर ध्यान करने से अवश्य ही शाश्वत सिद्धपद की प्राप्ति कर लेता है। इसलिये भव्यजनों को अविचल अर्थात् शाश्वत सिद्ध पद की प्राप्ति के लिये सुस्थिर प्रबल परिणामों से अविचलकूट का स्मरण करना चाहिये (इति श्री सम्मेदशिखरमाहात्म्ये सुमतिनाथतीर्थङ्करवृत्तपुरस्सरमविचलकूटवर्णनं नाम पञ्चमो ध्यायः समाप्तः । इस प्रकार श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य में तीर्थङ्कर सुमतिनाथ के वृत्त को उजागर करता हुआ अविचलकूट का वर्णन करने वाला पाँचवाँ अध्याय समाप्त हुआ )
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