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ॐ हीं श्रीपार्श्वनाथाय नमः
श्रीमद्देवदत्तविरचितम् श्रीसम्मेदशिखरमाहात्म्यम्
प्रथमोऽध्याय ध्यात्वा यत्पादपाथोजं भव्याः संसारपारगाः ।
सारात्सारं सदाधारं तमहन्तं नमाम्यहम् ।।१।। अन्वयार्थ - संसारपारगाः भव्याः = संसार सागर के पार जाने वाले भव्य
जन, यत्पादपाथोज = जिनके चरणकमल से उत्पन्न (कान्ति का), ध्यात्वा = ध्यान कर, सारात्सारं = सर्वोत्तम से सर्वोत्तम पद को अथवा सत्व यानी वस्तु के स्वरूप को, (लभन्ते = पा जाते हैं), सदाधार तम् अर्हन्तम् = सज्जनों के आधार उन अर्हन्त भगवान् को, अहम् == मैं, नमामि = नमस्कार करता
श्लोकार्थ - चतुर्गति परिभ्रमण रूप संसार सागर से पार जाने की योग्यता
रखने वाले भव्य जीव जिन प्रभु के चरण कमलों से उत्पन्न कान्ति का ध्यान कर सर्वोत्कृष्ट पद को पा जाते हैं अथवा वस्तु के स्वरूप को समझ जाते हैं, सज्जनों के आधार पुरुष-शरणदाता उन अर्हन्त प्रभु को मैं काव्यकार देवदत्त
नमस्कार करता हूं। गुरूं गणेशं वाणी च ध्यात्वा स्तुत्वा प्रणम्य च ।
सम्मेदशैलमाहात्म्यं प्रकटीक्रियते मया ।।२।। अन्वयार्थ · मया = मेरे द्वारा, गुरूं गणेशं - मुनि समूह के स्वामी गुरू
गणधर को, प्रणम्य = प्रणाम कर, स्तुत्वा = उसकी स्तुति