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चतुर्थः
= पापपक नष्ट करने वाली, तस्य = उस देव की, भूम्यागमनसत्कथां = भूमि पर आगमन होने की सत्कथा को,
शृणुध्वं = सुनो। श्लोकार्थ – सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र को प्राप्त सुख में भी महत्त्वबुद्धि न
रखकर उनमें आसक्ति न रखता हुआ, छह माह शेष आयु वाला यह देव अर्थात् तीर्थकर अभिनंदननाथ का जीव कर्मों का क्षय करने के लिये समुत्सुक हुआ। कवि कहता है कि हे साधुजनों- सज्जनों तुम सभी उसकी भूमि पर आगमन की सत्कथा को सुनो जो सुनने से पापों रूपी कीचड़ को
नष्ट करने वाली है। जम्बूद्वीपे शुभे क्षेत्रे भारते कौसलाभिधे । देशेऽयोध्यापुरी तत्रेक्ष्वाकुवंशेऽथ कास्य ।।६।। गोत्रे स्वयंवरो राजा बभूव सुकृताम्युधिः । सिद्धार्था तस्य महिषी भूपचित्तवंशकरी ।।१७।। अन्ययार्थ – जम्बूद्वीपे = जम्बूद्वीप में, भारते = भरत क्षेत्र में, शुभे = शुभ
अर्थात् आर्य, क्षेत्रे = क्षेत्र में, कौसलाभिधे = कौसल नामक, देशे = देश में, अयोध्यापुरी = अयोध्या नगरी, (आसीत् = थी), तत्र = उसमें, इक्ष्वाकुवंशे = इक्ष्वाकुवंश में, अथ - और, काश्यपे = काश्यप, गोत्रे = गोत्र में, सुकृताम्बुधिः = पुण्यात्मा अर्थात् पुण्य कार्य करने में सागर के समान गंभीर व विशाल, राजा = राजा, स्वयंवरः = स्वयंवर, बभूव = हुआ। तस्य = उस राजा की, भूपचित्तवंशकरी = राजा के मन को वश में
करने वाली, सिद्धा-सिद्धार्था नाम की रानी आसीत्-थी) श्लोकार्थ --- जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में आर्यक्षेत्र वर्ती कौसल नामक देश
था जिसमें अयोध्या नामकी नगरी थी। उसमें इक्ष्वाकुवंश समुत्पन्न, काश्यप गोत्रीय एक अतिशय पुण्यशाली राजा स्वयंवर हुआ था। उस राजा की सिद्धार्था नामकी रानी थी,
जो राजा के मन को वश में करने वाली थी। तन्मोदार्थ च षण्मासाग्रतः स्वायधितो वृषा । प्रभोरागमनं झारवा · समादिश्य धनेश्वरम् ।।१८।।