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________________ चतुर्थः ११३ छोड़ते हुये, मुनिः = मुनिराज ने, सर्वार्थसिद्धिनामविमानं = सर्वार्थसिद्धि नामक विमान को, प्राप्तवान् = प्राप्त किया। श्लोकार्थ – तथा आयु के अन्त में सन्यास मरण की विधि से शरीर छोड़ते हुये उन मुनिराज ने सर्वार्थसिद्धि नामक विमान को प्राप्त किया। तत्राहमिन्द्रपदयीं सम्प्राप्य स्थतपोबलात् । त्रित्रिंशत्सागरायुष्यः भूमापवधिलोचनः ।।१०।। अन्ययार्थ – तत्र = सर्वार्थसिद्धि में, अहमिन्द्रपदवीं = अहमिन्द्र पदवी को, सम्प्राप्य = पाकर, त्रित्रिंशत्सागरायुष्यः = तेतीस सागर की आयु वाला. (सः = वह), स्वतपोबलात् = अपने तप के बल से. भूमाववधिलोचनः = भूमिपर्यन्त अवधिज्ञान से जानने वाला. (अभूत् = हो गया)। श्लोकार्थ – सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र पद पाकर तेतीसागर की आयु वाला वह देय अपने तपबल से सातवी भूमि पर्यन्त मर्यादा वाले अवधिज्ञान से जानने वाला हो गया। वित्रिंशदुक्तसाहस्रवर्षोपरि स मानसं । भोजनं कृतवांस्तत्र स्यानन्दपरितोषितः ।।११।। अन्वयार्थ – स्वानन्दपरितोषितः = अपने में ही प्राप्त आनन्द से पूर्ण संतुष्ट होता हुआ, सः = वह अहमिन्द्र, तत्र = उस सर्वार्थसिद्धि में, त्रित्रिंशदुक्तसाहस्रवर्षोपरि = तेतीस हजार वर्षों के बाद, मानसं = मन की इच्छावाला मात्र, मोजनम् = अमृत भोजन, कृतवान् = करता था। श्लोकार्थ – सर्वार्थसिद्धि में वह अहमिन्द्र अपने में ही प्राप्त आनन्द से पूर्णसंतुष्टि पाकर तेतीस हजार वर्ष आयु बीत जाने पर केवल मन में इच्छा करने से ही अमृत भोजन किया करता था। मन में इच्छा होने पर कंठ में से अमृत झर जाता है उसे मुंह झूठा नहीं करना होता है यही अमृत आहार है। त्रित्रिंशत्पक्षगमने श्वासोच्छवासधरस्तथा। चतुरगुलकन्यूनः हस्तमात्रशरीरकः ।।१२।।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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