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चतुर्थः
महासेना च तदाज्ञी कान्त्याभूदिव कौमुदी । तया सह महीपालः परमं सुखभन्वभूत् । ।४ ।।
श्लोकार्थ
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अन्वयार्थ - तद्राज्ञी च और उसकी रानी, महासेना = महासेना, कान्त्या कान्ति की अपेक्षा, कौमुदी इव चन्द्र-कान्ति के समान, अभूत थी। महीपालः = राजा ने, तथा सह = उस रानी के साथ, परमं = परम, सुखं = आनन्द को, अन्चभूत् = भोगा या अनुभव किया।
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श्लोकार्थ
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है जिसका राजा महाबल विपुल पुण्यशाली अर्थात् पुण्यात्मा
था।
एकदादर्शमध्ये तहेतुनैव अन्वयार्थ
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उस राजा की रानी महासेना थी जो कान्ति की अपेक्षा. चन्द्रमा की कान्ति के समान थी। उसके साथ राजा ने परम आनन्द को भोगा अर्थात् अत्यधिक आनंद का अनुभव किया ।
स
किञ्चित्पलितमैक्षत ।
वैराग्यमगमत्सुदृढं
प्रभुः ।।५।।
एकदा = एक दिन, सः उस राजा ने आदर्शमध्ये = दर्पण में. किञ्चित् = थोड़ा या कोई, पलितं = पका हुआ सफेद बाल को, ऐक्षत = देखा । तदहेतुना = उस कारण से, एव ही. प्रभुः राजा, सुदृढं = स्थिर या मजबूत, वैराग्यं = वैराग्य को अगमंत् = प्राप्त हुआ ।
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एक दिन उस राजा ने दर्पण में अपना कोई थोड़ा बहुत पका हुआ बाल देखा तो उस कारण ही उसे सुस्थिर वैराग्य हो
गया।
धनपालाख्यपुत्राय तदा राज्यं समर्प्य सः । महाविवेकसम्पन्नः स्वयं वनमुपाययौ । । ६ । । अन्वयार्थ तदा - तब अर्थात् वैराग्य होने पर, महाविवेकसम्पन्नः अत्यधिक विवेकशील, सः वह राजा धनपालाख्यपुत्राय धनपालनामक पुत्र के लिये, राज्यं = राज्य को, समर्प्य अर्पित करके या देकर स्वयं = खुद ही वनं बन को, उपाययौ = चला गया ।
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