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पारेमित्ति, गुरु भणइ 'आयारो न मोत्तबोति तओ नमुकारतिगं उवदिओ भणइ, पुणो मुहपोतिं पडिलेहि पुत्रविहिणा सामाइयं पारेड, पोसहे पारिए, नियमाइ संभवे साह्र लामि पारिअबंति । जो पुण रत्तिं पोसह लेइ सो संझाए उवहिं | पडिलेहइ, तओ पोसहे ठाउं थंडिल्लपेहणाई सवं करिय नवरं जाव दिवससेसं रत्तिं वा पज्जुवासामित्ति उच्चरइ | पभाए पुण जाव अहोरत्तिं दिवसं वा पजुवासामित्ति उच्चरइ इति विधिप्रपापाठः । रात्रिपौषधग्रहणविधिः श्रीतरुणप्रभसूरित्रालायवोधोक्तोऽपि लिख्यते, तथाहि-रात्रि-पौषधप्रतिलेखनावेलासमय उपधिलेखनाबेलासमय उपधिलेखना कीजइ, परिधानप्रतिलेखना पुणो कीजइ, पछइ दिवस-अणि आधमियइ हुंतइ मूलपदे पहिलं इरियावहियं पडिक्कमी करी एक खमासमणे पोसहमुहपत्तिं पडिलेहिमि कही ऊभा होइ, एक खमासमणे पोसहं संदिसावेमि कही, बीजइ खमासमणे पोसह ठाएमि भणी तइय खमासमणदानपूर्वक ऊभा होइ, अर्धावनतगात्र हुँतो मुहपरि मुहपत्ति देइ गुरुवचन अनुभासतो तिणि वार नमस्कारभणनपूर्वक 'करेमि भंते पोसह' इत्यादि पोसह दंडक तिणिवार उचरइ, तदनन्तरि पूर्वरीति करी सामायिक करइ, इरियावही पहिली पडिक्कमी छै, सुइज़ प्रमान कीजै, वली सामाइक दंडक पाछै पडिकमीजे नही इति ॥ तथा अत्र श्रावको यदा पाश्चात्यरात्री कालवेलायां पौषधं गृह्णाति तदा प्रारदिनसन्ध्यायां पौषधोपकरणानि प्रतिलेखयित्वा वा पृथग् रक्षति, ततः तैरुपकरणैः कालबेलायां पौपधं गृह्णाति, साम्प्रतमेवं गच्छप्रवृत्तिदृश्यते, परं विधिप्रपायां श्रीतरुणप्रभसूरिवालावबोधे चेदं लिखितं नाऽस्ति । पुनः पौषधविधि