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सम्मइसुत्तं
की पहचान हम ‘सन्मतिसूत्र' की बारहवीं गाथा से कर सकते हैं। इन दोनों रचनाओं में एक ही स्थान पर इस गाथा का अस्तित्व सहज ही परिहार्य नहीं है। "द्रव्य' के लिए 'दविय' तथा 'दच्च' शब्द का प्रयोग भी 'पंचास्तिकाय' को देख कर किया गया है; जैसे कि उसकी व्युत्पत्ति सर्वप्रथम वहाँ दिखलाई पड़ती हैं। आगम ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि बिना नयों (विशेष दृष्टिकोण) के कोई भी व्यक्ति सूत्रों के वास्तविक अर्थ को नहीं समझ सकता, क्योंकि वे एक ही वस्तु के विभिन्न गुण-धर्मों तथा रूपों को प्रस्तुत करते हैं। यदि यथार्थ में द्रव्यार्थिक या परमार्थ नय की दृष्टि से विचार किया जाए, तो अशुद्ध पर्याय रूप विभाव का अस्तित्व तथा सजीव प्राणियों का सद्भाव भी उस नय की दृष्टि में (जो कि सत्यार्थ को ले कर चलता है) बन नहीं सकता है। यही भाव आचार्य कुन्दकुन्द की 'बादशानुप्रेक्षा' में वर्णित हैं।" यदि हम गहराई से देखें तो पता चलता है कि आचार्य कुन्दकुन्द की शुद्धनय की दृष्टि 'सन्मतिसूत्र' में प्रतिविम्बित हुई है। आचार्य सिद्धसेन ने दृढ़ता से यह प्रतिपादन किया है कि नय का प्रयोग किसी भी वस्तु के वर्णन करने के लिय भंग (दृष्टिकोण) के रूप में किया जाता है। यथार्थ में तत्त्व अपने सम्पूर्ण आत्म-प्रकाशक रूप में अनिर्वचनीय है। शब्दों में उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। जो उस आत्म-तत्त्व का अनुभव-अवलोकन करता है, वह अपने अनुभव को पूर्ण रूप से तथा उपयुक्त शब्दों में अभिव्यम्न नहीं का स मापर्य सिद्धलेक ने अपने नयवाद का विवेचन इन वचनों से ही पूर्ण किया है : शुद्ध नयवाद का विषय आत्मानुभव (भावश्रुत) है। श्रुत-कथित विषय का साधक शुद्ध नयवाद है। यद्यपि आत्मोन्मुखी प्रवृत्ति हेतु वस्तु-स्वरूप व तत्त्वज्ञान का निर्णय आवश्यक है, वस्तु-स्वरूप के ज्ञान के लिए व्यवहार नय का भी आलम्बन लेना पड़ता है; किन्तु अखण्ड आत्म-तत्त्व की अनुभूति के लिए दोनों नयों के पक्ष से मुक्त हो जाना पड़ता है। जो सहज परमानन्द स्वरूप शुद्ध आत्म-तत्त्व का अनुभव करने वाला है, वह सतत केवलज्ञान के भाव से उल्लासत होता हुआ किसी भी नय के विकल्प को ग्रहण नहीं करता। परन्तु जो इस अवस्था को उपलब्ध नहीं हुआ, वह व्यवहार नय से पराङ्मुख हो 1. पन्जयायेजुदं दब्बं दब्यविगुना य पज्जया णत्यि।
दोहं अणपणभूदं पार्थ समणा परूविति ।। -पंचास्तिकाय, 1, 12 __ तुलना कीजिए-दत्वं पञ्जयचिट्यं दध्वविउत्ता य पज्जया णमि । -सन्मतिसूत्र, I, 12 2. इवियदि गच्छादि साई ताई सम्मानपज्जयाइं नं।
दवियं तं भण्णते अणण्णभूदं तु सतादो ॥ -पंचास्तिकाय 1, " 3. णत्यि गणारे थिहणं सुलं अत्योच्च जिणवरमदम्हि ।
तो णयवादे गिष्णा मुणिणो सिद्धतियां हति ।। || -पटूखण्डागम जीवस्यान I...1 1. ण प दहियाख्ने संसारो णेव पज्जवणयस्स। --सन्मतिसूत्र, 1.17 5. जीवस्स ण संसारो गिचायणपकम्मयिम्मुक्को। -द्वादशानुप्रेक्षा, गा. 37 6. दोपहदि णयाण मणिदं ज्माण पवारं तु समयपड़िबद्धो।
पादुणवपक्रख गिदि कि.चिवि णयपक्वपरिहीणो || -सागयतार, गा. 143