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प्रस्तावना
निश्चयमय का आलम्बन लेता है। क्योंकि निश्चय नय स्वयं निर्विकल्प समाधि-रूप है। अतः निश्चय नय की दृष्टि में व्यवहार नय प्रतिषिद्ध है। इतना होने पर भी, कोई भी नय किसी अन्य नय के विषय का न तो लोप करता है और न तिरस्कार ही करता है।
आचार्य कुन्दकुन्द कृत 'अष्टपाहुइ' में ऐसे कई उद्धरण मिलते हैं जो न केवल शब्दों में, पदों में, वरन् वाक्य-रचना में भी 'सन्मतिसूत्र' से समानता प्रकट करते हैं। इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द के नियमसार' के साथ 'सन्मतिसूत्र' की तुलना की जा सकती है। 'नियमसार' की उन्नीसवीं गाथा में यह कहा गया है कि सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से जीव पूर्वोक्त व्यंजन पर्यायों से भिन्न है तथा विभाव व्यंजन पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से सभी जीव उन पर्यायों से संयुक्त हैं। यही भाव "सन्मतिसून" की प्रथम काण्ड की चौथी गाथा में प्रकट किया गया है। स्पष्ट रूप से विचारों, अभिव्यक्ति तथा शैली में भी आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय' और 'सन्मतिसूत्र' में तथा 'प्रवचनसार' एवं 'सन्मतिसूत्र' और 'समयसार' में साम्य लक्षित होता है।
पं. सुखलालजी तथा अन्य विद्वानों ने भी 'सन्मतिसूत्र की प्रस्तावना में यह स्वीकार किया है कि दर्शन-ज्ञान की अभेदता का जो सिद्धान्त सन्मतिसूत्र' (2, 30) में मिलता है। इसके बीज स्पष्ट रूप से आचार्य कुन्दकुन्द के 'समयसार' (1, 13) में हैं। इसके अतिरिक्त 'समयसार की चौदहवीं गाथा 'जो पस्सदि अप्माण शुद्धनय के स्वरूप की व्याख्या करती हुई यह प्रतिपादन करती है कि शुद्धनय अविशेष रूप से अवलोकन करता है, जिसमें ज्ञान और दर्शन के भेद का कोई स्थान नहीं है। और इस दृष्टि से इस सन्दर्भ में अमेदवाद का मूल स्रोत-दोनों उपयोगों की युगपत् समग्रता का कथन ही 'समयसार' में उपलब्ध होता है। इसके पूर्व यह विवेचन 'षट्खण्डागर' में प्राप्त होता है। आचार्य उमास्वामी ने संक्षेप में अपने सूत्र (सर्वद्गव्यपर्यायेषु 1, 29) में यह प्रतिपादन किया है कि केवली भगवान प्रत्यक्ष रूप से (बिना मन और इन्द्रियों की सहायता के) सभी द्रव्यों और उनके गुणों तथा पर्यायों
I. तुलना कीजिए - नियपसार, गा, [66 और सन्मतिसूच, 2, 4 नियमसार, गा. 156 तथा सन्मसिसूत्र 2,
30; नियमसार, गा. 169 और सन्पतिसूच 2, 15 नियमसार, गा. 1 तया सन्मतिसूत्र. 2, 20%
नियमसार, गा. 160 एवं सन्मतिसूत्र 2, 3 इत्यादि। ५. पंचास्तिकाय गा. 12 और सन्मतिसूत्र 1, 12 पंचास्तिकाय गा. 154 तथा सन्मतिसूत्र में, 25,
पंचास्तिकाय गा. 18 एवं सन्मतिसूत्र 2, 12; पंचास्तिकाय ना. +9 तथा सन्मतिसूत्र 2, 97; प्रवचनसार 2, 46 और सन्मतिसूत्र 1, 18; प्रवचनसार 1. 18 तथा सन्मत्तिसूत्र 1. 36-40; प्रवचनसार ।, 8 और सन्मतिसूत्र ।, A; प्रवचनसार 1, 26 तथा सम्मतिसूत्र 2, 30; प्रवचनसार I. 28 एवं सन्मतिसूत्र 2, 45
समयसार 947, 348 तथा सन्मतिसूत्र ।,52। ४. पुख्तार, जुगलकिशोर : सम्मतिसू एण्ड सिद्धसेन, दिल्ली, 1966, 2. 33