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सम्मर्स
के प्रयोग से सहभावी गुण और क्रमभावी पर्याय दोनों का ग्रहण हो जाता है । किन्तु 'गुण' शब्द का प्रयोग करने से केवल सहभावी गुणों का ही ग्रहण होता है। परिगमणं पज्जायो अणेगकरण गुण त्ति तुल्लत्था' । तह विण गुण' त्ति भण्णइ पज्जवणयदेखणा जम्हा ॥12॥ परिगमनं पर्यायोऽनेककरणं गुण इति तुल्यार्थः । तथापि न गुण इति भण्यते पर्यवनयदेशना यस्मात् || 12 || शब्दार्थ-परिंगमणं परियमन (परिणमन, पलटना ); पज्जायो- पर्याय ( है ) ; अणेगकरणं अनेक (रूप) करना; गुण-गुण (है); त्ति-यह: तुल्लस्था-तुल्य अर्थ (वाले हैं दोनो ) तह वि-तथापि (तो भी); ण गुण नहीं (है) गुण (यह कथन जो कि); ति- ऐसा मण्णइ - कहा जाता (है), जम्हा - जिससे (क्योंकि), पज्जवणयदेसणा-पर्यायनय (की) देशना ( है ) |
परिणमनःपर्याय :
भावार्थ- वस्तु के परिणमन को पर्याय कहते हैं। इसी प्रकार वस्तु के अनेक रूप करने को गुण कहा जाता है। ये दोनों ही इस तरह समान अर्थ वाले हैं। फिर भी, पर्याय को गुण नहीं कहते हैं। क्योंकि पर्याय और गुण का यह कथन पर्यायार्थिक नय की देशना है: द्रव्यार्थिक नय का उपदेश नहीं है। यद्यपि पर्यायों का परिणमन सहभावी और क्रमभावी दोनों रूपों में होता है। द्रव्य की अपनी-अपनी अवस्था में जो क्रमशः परिणमन होता है, उसे क्रमभावी पर्याय कहते हैं और अनेक रूप में वस्तु का जो ज्ञान होता है, यह सहभावी पर्याय (गुण) है। इस प्रकार पर्याय और गुण की समानार्थक प्रतीति होने पर भी पर्याय को गुण नहीं कहा जाता है। क्योंकि अर्हन्त भगवान् का ऐसा उपदेश नहीं है कि यह द्रव्यार्थिक नय का विषय हो । यथार्थ में गुण के विकार को पर्याय कहा जाता है। जो पलटता है, वह गुण है और जो प्रकट होती है, वह अवस्था पर्याय है।
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जंपति अस्थि समये एगगुणी दसगुणो अनंतगुणो । रुवाई परिणामो भण्णइ तम्हा गुणविसेसो ॥13॥ जल्पन्त्यस्ति समय एकगुणो दशगुणोऽनन्तगुणः । रूपादि - परिणामी भण्यते तस्माद् गुणविशेषः ॥13॥ शब्दार्थ - एगगुणो- एक गुणः दसगुणो- दश गुण (और); अनंतगुणो- अनन्त गुण
1. घ० गुणो ति एगधा ।
2.
" गुणी ।
3.
व देसागं ।
4.
गुणाविसेसे ।