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सम्मसुतं
द्वौ पुनर्नय भगवता द्रव्यार्थिकपर्यवार्थिको नियतौ । एतस्माच्च गुणविशेषे गुणार्थिकनयोऽपि युज्यमानः ॥10॥
शब्दार्थ - भगवया भगवान् (के द्वारा ); उण-फिर दव्यट्ठियपज्जवट्टिया-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक (ऐसे); दो गया- दो नयः पियया नियत किए गए हैं): एतो य- इससे ( भिन्न); गुणविसेसे-गुण विशेष होने पर गुणट्टिययो- गुणर्थिकनय बिभी: जुज्जंतो-प्रयुक्त होता ( है ) ।
कोई गुणार्थिक नय नहीं
भावार्थ - अर्हन्त भगवान् ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दो नयों की ही प्ररूपणा की है। यदि पर्याय से भिन्न कोई गुण होता, तो गुणार्थिक नय के नाम से उसका भी कथन होता । किन्तु गुणार्थिक गण के राम से कोई नहीं है। '' शब्द का अर्थ पर्याय से भिन्न नहीं है। इसलिए गुणार्थिक नय की प्ररूपणा की आवश्यकता नहीं रही। यदि गुण द्रव्य से भिन्न होते, तो उनकी प्ररूपणा के लिए गुणार्थिक नय का भी अभिधान होता । किन्तु द्रव्य से गुण त्रिकाल में भी भिन्न नहीं हो सकते। एक समय में भी गुण द्रव्य में सतत साथ रहते हैं। इसी प्रकार पर्याय सामान्य भी द्रव्य के साथ रहती है। अतएव गुण और पर्याय में भिन्नता नहीं है ।
जं च पुण अरहया' तेसु तेसु सुत्तेसु गोयमाईणं । पज्जवसण्णा णियमा वागरिया तेण पज्जाया ॥11॥
यच्च पुनरर्हता तेषु तेषु सूत्रेषु गौतमादीनाम् । पर्यवसंज्ञा नियमाद् व्याकृता तेन पर्यायाः ॥1॥
शब्दार्थ - जं च पुण और फिर अरहया- अर्हन्त (प्रभु) ने तेसु तेसु-उन-उनमें सुतेसु-सूत्रों में गोयमाईण- गौतम ( गणधर ) आदि के लिए; पज्जवसण्णा - पर्याय संज्ञा : शियमा नियम से ( कही है); तेण उन्होंने (उनके द्वारा ); पज्जाया- पर्यायें (गुण हैं, यह ); बागरिया - व्याख्यान किया (गया) है।
और फिर
भावार्थ - अर्हन्त प्रभु ने ही उन-उन सूत्रों में गौतम गणधर आदि सबके लिए पर्याय संज्ञा नियत की है, और उसी का विशेष रूप से व्याख्यान किया है। यह उनकी ही प्ररूपणा है कि गुण पर्याय से भिन्न स्वतन्त्र नहीं है। अतः गुणों को गुणी से भिन्न मानना उचित नहीं है। क्योंकि पर्याय का क्षेत्र विस्तृत है और गुण का क्षेत्र संकुचित है। 'पर्याय' शब्द
1. अ अरिहया ।
2.
बनिया ।
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