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सम्मइसुतं
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मान्यता के आधार पर जीव को सर्वथा अनादिनिधन नहीं मानना चाहिए।
संखेज्जमसंखेंज अणंतकप्पं च केवलं गाणं। तह रागदोसमोहा अण्णे वि य जीवपज्जाया ॥4॥ संख्येयमसंख्येयमनन्तकल्पं च केवलं ज्ञानम् । तथा रागद्वेषमोहा अन्येऽपि च जीवपर्यायाः॥43||
शब्दार्थ- केवलं जाणं-केवलज्ञान; संखेज-संख्यात; असंखेज्ज-असंख्यात, अणंतकप्पं-अनन्त रूप (प्रकार) (का है); च-और, तह-वैसे; रागदोसमोहा-राग, देष (और) मोह (रूप); अण्णे यि-दूसरे भी; य-और जीवपरजाया-जीवपर्याय
केवलज्ञानः असंख्यात और अनन्त भी : । भावार्थ-कंवलज्ञान संख्यात रूप है, असंख्यात रूप है और अनन्त रूप भी है। उसी प्रकार राग-द्वेष, मोह आदि जीव की पर्यायें भी संख्यात, असंख्यात और अनन्त रूप हैं। वस्तुतः मूल में आत्मा एक है, इसलिए उससे अभिन्न केवलज्ञान भी एक रूप है। दर्शन और ज्ञान की अपेक्षा केवल (कैवल्य) दो प्रकार का है। आत्मा उससे अभिन्न है और असंख्यात प्रदेश बाली है, इसलिए केवलज्ञान भी असंख्यात रूप है। केवलज्ञान अनन्त पदार्थों को जानता है। अनन्त पदार्थों को जानने के कारण केवलज्ञान अनन्त है। इसी प्रकार संसारी जीव रागी, द्वेषी, मोही है जो संख्यात, असंख्यात और अनन्तरूप है। इस प्रकार द्रव्य और पर्याय के कचित् भेद और कचित् अभेद का कघन किया गया है। भेद किए बिना लोक-व्यवहार नहीं बन सकता है। व्यवहार चलाने के लिए भेद या भिन्नता बताना अनिवार्य है। लेकिन भेद वस्तु-स्वरूप न होने से परमार्थ नहीं है। मूल वस्तु-स्वरूप को समझने के लिए अखण्ड, अभेद वस्तु का ज्ञान अनिवार्य है। उसे समझे बिना द्रव्य की वास्तविकता का बोध नहीं हो सकता।