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सम्मइसुत्तं
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और: भावार्थ-यह केवलज्ञान रूप अर्थपर्याय सिद्धपने में उत्पन्न होती है। केवलभाव की अपेक्षा से यह कभी नष्ट नहीं होती। इस भाव को लेकर ही सूत्र में केवलज्ञान को शाश्वत बताया गया है। एक बार उत्पन्न होने के बाद वह कभी नष्ट नहीं होता। इसी प्रकार किसी प्रकार का आवरण भी उस पर नहीं आता। वास्तव में यह कथन व्यवहार दृष्टि से है, परमार्थ से तो यह अनादि, अनन्त है। जीव के स्वाभाविक गुण उसमें सदा, सर्वदा विद्यमान ही रहते हैं। इसलिये. केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि शाश्वत ही हैं।
जीवो अणाइणिहणो केवलणाणं तु साइयमणंतं । इय थोरम्मि' विसेसे कह जीवो केवलं होइ 137॥ जीवोऽनादिनिधन: केवलज्ञानं तु सादिकमनन्तम्। इति स्थूले विशेष कथं जीवः केवलं भवति ||37||
शब्दार्थ-जीवो-जीव, अणाइणिहणी-अनादिनिधन (है); केवलणाणं-केवलज्ञान; तु-तो; साइयमणतं--सादि अनन्त (है); इय थोरम्मि-स्थूल रूप (सामान्य रूप) में (और); बिसेसे-विशेष (पर्याय रूप) में; जीवो-जीय; केवलं-केवल (ज्ञान रूप); कह-कैसे; होइ-होता (हो सकता है।
परस्पर विरुद्धता होने पर केवलज्ञान कैसे ? : भावार्थ- केवलज्ञानावरण कर्म के सर्वथा नष्ट होने पर भवस्थकंवली के केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता है"-यह सुन कर कोई शंका करता है कि गुण-गुणी, द्रव्यपर्याय में अभेद मानने से केवलज्ञान सादि न हो कर अनादि हो जाता है और यदि केवलज्ञान को सादि अनन्त मानते हैं, तो जीव को भी सादि अनन्त मानने का प्रसंग आता है: जिस प्रकार छाया तथा आतप में परस्पर भेद है, उसी प्रकार जीव और केवलज्ञान में विरुद्ध धर्म होने के कारण परस्पर भेद मानना उचित है। अतएव जीव केवलज्ञान रूप है एवं अनादि-अनन्त है-ये दोनों बातें एक साथ कैसे सम्भव हैं?
तम्हा अण्णो जीवो अण्णे गाणाइपज्जवा तस्स। उपसमियाईलक्खणविसेसओ केइ इच्छति ॥38॥
1. ब घोरमि। 2. स' एत्यामि। 3. ब" केवि।