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सम्मइसुत्तं
उत्पन्न होता है और फिर सतत बना रहता है। एक बार केवलज्ञान के प्रकट हो जाने पर यह त्रिकाल में भी अपने प्रतिपक्षी कर्म से आक्रान्त नहीं होता। इस दृष्टि से वह अपर्यबसित है। किन्तु यह एकान्त नहीं है, किसी अपेक्षा से इसे पर्यवसित भी कहा जाता है; ऐसा कुछ कहना चाहते हैं। परन्तु
जे संघयणाईया भवत्यकेवलि विसेसपज्जाया। ते सिज्झमाणसमये' ण होति विगये तओ होइ ॥35।। ये संहननादयः भवस्थकेवलिविशेषपर्यायाः । ते सिद्धमानसमये न भवन्ति विगतं ततो भवति ||3511
शब्दार्थ-भवत्यकेवलि-भवस्थ केवली (की); विसेसपज्जाया-विशेष पर्यायें (संहनन आदि रूप); जे-जो; संघयणाईया-संहनन आदि (है); ते-बै; सिज्झमाणसमये-सिद्ध होने के समय में ण-नहीं होति-होती रहती) हैं; तओ-इस कारण; विगयं-विगत (पर्यवसित); होइ-होती है।
शाश्वत होने पर भी किसी अपेक्षा से नश्वर : भावार्थ-जो तेरहवें गुणस्थानवर्ती भवस्थकेवली वजवृषभनाराचसंहनन के धारी हैं, वे केवलदर्शन, केवलज्ञान आदि से सम्पन्न हैं, जिनके आत्मप्रदेशों का एकक्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध हैं तथा अपातियों कर्मों का नाश कर जो सिद्ध पर्याय को प्राप्त करने याले हैं, उनके शरीरादि आत्मप्रदेशों का एवं केवलज्ञान-दर्शनादि का सम्बन्ध छूट जाता है और सिद्ध अवस्था रूप नवीन सम्बन्ध होता है, इसलिए उन्हें पर्यवसित कहा जाता है।
सिद्धत्तणेण य पुणो उप्पण्णो एस अत्थपन्जाओ। केवलभावं तु पडुच्च केवलं दाइयं सुत्ते ॥6॥ सिद्धत्वेन च पुनः उत्पन्न एष अर्थपर्यायः।
केवलभावं तु प्रतीत्य केवलं दर्शितं सूत्रे ॥6॥ शब्दार्थ-एस-यह (केवलज्ञान रूप); अत्यपजाओ-अर्थपर्याय: सिद्धत्तणेण-सिद्धत्व (रूप) से; य-औरः पुणो-फिर; उप्पण्णी-उत्पन्न होती है); केवलमाव केवलभाव (की); पडुच्च- अपेक्षा (से); केवलं-केवल को (सादि अपर्यवसित); सुत्ते-सूत्र में दाइयं-दिखाया गया है)। 1. बसमयपि। 2. ब" बिंगई। 5. ब" समये।
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